सतीश "बब्बा"
बडी़ कठिन है गली जीवन की,
खेल में गयी गली बचपन की,
यहीं से शुरू गली पचपन की,
खेला, खाया रह गयी मन में मन की!
आकर किशोर हुआ मन मेरा,
पढा़ई - लिखाई, शौक बटोरा,
जवानी में है धन बटोरा,
जवानी ही तो माया का घेरा!
रह गयी है मन में मन की,
प्रौढ़ हुआ लगती है झपकी,
नहीं बोलतीं छोटकी - बड़की,
जवान हो गए लड़का - लड़की!
पचपन में मृगतृष्णा भारी,
साठ में घेरती है बीमारी,
बहू के हाथ रसोई सारी,
बूढी़ - बूढा़ की होय खुआरी!
जरा में नहीं चलती मन की,
फटी रजाई कोनिया घर की,
नींद न आती चलती घुड़की,
अंत समय यमराज के मन की!!
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