कविता। "अमृत महोत्सव"
सतीश "बब्बा"
जहाँ तिल - तिल मरती जनता है,
थोपा गया यह उत्सव है,
जहाँ भूँखी, नंगी जनता है,
यह कैसा अमृत महोत्सव है!
जहाँ नारी की लुटती इज्जत है,
शिक्षा की हालत खस्ता है,
बेरोजगार घूमती जवानी है,
यह कैसा अमृत महोत्सव है!
जहाँ, किसान दबा कर्ज से है,
रोज - रोज करता किसान आत्महत्या है,
गायें फिरती छुट्टा है,
यह कैसा अमृत महोत्सव है!
जहाँ गोरस में लगी जी एस टी है,
जहाँ का सैनिक हुआ निहत्था है,
नित गायें चीत्कार करती हैं,
यह कैसा अमृत महोत्सव है!
जहाँ के नवजात कुपोषित हैं,
जहाँ के जंगल प्रतिदिन कटते हैं,
जहाँ बीमारी से जनता मरती है,
यह कैसा अमृत महोत्सव है!!
सतीश "बब्बा"