कविता। "कहाँ छिप गयी"
सतीश "बब्ब"
नहीं छिपी है भोर तरैया,
मेरे आँगन की सोन चिरैया,
ठुमक चले सारी अँगनइया,
ऐसी थी वह मेरी मुनिया!
एक बार घाघरा पहनाया ,
झालर में कंघी घुमाया,
तेल, उबटन सबै लगाया,
लग गयी थी उसको निदिया!
निकल आई थी सरग तरैया,
भोर भये रोए जब मुनिया,
पिसनहरिन का टैम जमुनिया,
गृहस्थ की शोभा माने दुनिया!
अब पनिहारिन का घडा नहीं है,
तेरे कमर की शोभा धनिया,
चली गयी एक दिन मेरी मुनिया,
खूब सजी थी जैसे गुडिया!
बिटिया से कोई नीक नहीं है,
दो घरों की शोभा मुनिया,
फिर से मेरे घर आए मेरी छोटी मुनिया,
कोई बना दे, ऐसा कहाँ है गुनिया!!
सतीश "बब्ब