सतीश "बब्बा"
वह हाथ पकड़े थी ऐसे,
छोड़ेगी नहीं कभी जैसे,
चाहे भीड़ का कोई हिस्सा छुड़ाना,
क्रोध से फुफकारती चण्डी जैसे!
जानता हूँ वह उससे बहुत लड़ती है,
अपने हक के लिए कटा युद्ध करती है,
बराबर हिस्से की बातें करती है,
संग - संग उसके खेलती रहती है!
अपना हिस्सा छोड़ना नहीं चाहती है,
हाँ आँखों से ओझल हो जाता जब है,
गाँव का घर - घर, हर घर में ढूँढ़ती है,
नहीं मिलने पर बेचैन हो बहुत रोती है!
वह सुख से रहे यही चाहती है,
अपना सुख उस पर न्यौछावर कर देती है,
यह बहन भाई को ऐसे चाहती है,
खुशबू हवा जैसे अलग नहीं है!
आता मजबूत बंधन रक्षाबंधन का दिन,
बहन को भाई, भाई को बहन याद आती है,
जब बहन नहीं आती किसी कारण,
भाई यहाँ रोता है, बहन वहाँ रोती है!
सतीश "बब्बा"