कविता। "समय"
सतीश "बब्बा"
समय किसी एक का नहीं होता,
परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं,
जब धरती का रूप बदलता है,
मानव तो स्वयं परिवर्तन है!
कभी गोधन हुआ करता था,
आज बकरी धन हो गया है,
कभी बकरी अछूत होती थी,
आज गौ अछूत सी हो गई है!
कभी गजधन हुआ करता था,
आज लौह धन हो गया है,
गज का अता - पता बहुत कम है,
लोहा तो हर घर की शोभा है!
कभी बाज धन हुआ करता था,
आज दो और चार पहिया गाड़ी धन है,
घोड़ा तो बहुत कम दिखाई देते हैं,
गाड़ी तो घर - घर दिख जाती हैं!
नमन है इस परिवर्तन को,
सब अपने दम पर जीते हैं,
पूजा - पाठ सब दिखावा के होते हैं,
भागमभाग की जिंदगी दूर - दूर रहते हैं!!
सतीश "बब्बा"