सतीश "बब्बा"
सघन वन वट वृक्ष अकेला,
अडिग खड़ा परस्वारथ में,
था देवताओं का आश्रय भी,
करता पूर्ण मानव मनकामना भी!
शाखाएँ थी उसकी फैली दूर तक,
रहते हरियल, धनेह, महोख,
रहते थे घोसला बना कोटर में,
लाल फलों को खाकर मस्त !
बंदरों की टोली आई एक दिन,
लगे तोड़ने फल और डालियाँ भी,
मना किया था पक्षियों ने उनको,
बात नहीं मानी खरगोस की भी!
आखिर एक दिन पानी आया,
वर्षा ऋतु का सावन छाया,
भीग रहा था किट - किट करता बंदर,
दया आ गयी बरगद के दिल के अंदर!
पक्षियों की मीटिंग बुलाया,
अपनी शाखाओं, पत्तों, डाल में,
छिपा - छिपाकर बंदरों की जान बचाई,
एक दिन सब एक दूसरे से अटकेंगे जीवन में!!
सतीश "बब्बा"