सतीश "बब्बा"
यह जीना भी क्या जीना है,
जी, जी कर मरना है,
जिसको समझा अपना है,
वह तो निकला बेगाना है!
लोग जीने को मन्नतें मानते हैं,
हम मरने की चाहत रखते हैं,
फिर भी नहीं हम मरते हैं,
हम तिल - तिल कर मरते हैं!
यह जीना भी क्या जीना है,
जीने का जहर पीना है,
देखा था एक सपना है,
होता क्या सपना, अपना है!
जिसको समझा था अपना है,
उसका काम सिर्फ ठगना है,
यहाँ कोई नहीं किसी का है,
बस अपना कर्म ही अपना है!
यह जीना भी क्या जीना है,
स्वारथ का मंत्र जपना है,
यहाँ सब कुछ एक दिन छूटना है,
यहाँ कोई भी नहीं अपना है!
सतीश "बब्बा"