सतीश "बब्बा"
खेत वही हैं, मेंड़ वही हैं,
लेकिन वही अनाज नहीं हैं,
चलते - फिरते मनुष्य नाम के प्राणी हैं,
लेकिन गाँव अब गाँव नहीं हैं!
मेरे गाँव में पंडित जी रहते हैं,
कथा - भागवत नहीं कहते हैं,
अण्डा - मुर्गा सब खाते हैं,
तिकड़म में सबसे आगे हैं!
आन लाइन वह करते हैं,
हरिजन, आदिवासी, यादव, धोबी,
अरू कुंभकार भी रहते हैं,
मुस्लिम नहीं एक भी हैं!
मस्जिद नहीं गाँव में हैं,
फिर भी आपस में लड़ते रहते हैं,
सरकारी सुबिधाओं से सभी वंचित हैं,
मर - मर कर, फिर - फिर जीते हैं!
नहीं कोई गाना गाता है,
विवाह में डी जे आता है,
साँसें लेना ही जीना है,
पी पी कर जीवन पीना है!
ऐसा मेरा गाँव है भाई,
ऐसा मेरा गाँव है भाई,
चली गयी इसकी तरुणाई,
बेटों से प्रताडित हैं बापू - माई!!
सतीश "बब्बा"