कविता। "नन्हीं परी"
सतीश "बब्बा"
वह धीरे - धीरे नन्हें पावँ से,
अपने चाचा की दुकान आती थी,
नन्हें हाथ, सुंदर गोल आँखों से,
चाचा से कुछ माँगती इशारा से!
चाचा उसके इशारे को समझता था,
चाचा ग्राहकों में बिजी अनदेखा करता था,
उस गुड़िया परी को गुस्सा आ जाता था,
तब अपनी ताकत का उसे ख्याल आता था!
वह उठाती थी सामान से भरा कार्टून,
और अपने बराबर उठाकर पटक देती थी,
फुफकारती, गुस्से में खूब रोती थी,
चाचा की निगाहे उसकी ओर जाती थी!
नुकसान देखकर चाचा को,
गुस्सा नहीं आता था,
वह उसे उठाकर गले लगाता था,
उस नन्हीं परी का गुस्सा उतर जाता था!
अपनी नन्हीं बाँहें डालकर परी,
चाचा की अनगिनत पप्पी लेती थी,
सच मानो वह खुशी रुलाती थी,
आज जब बिदा हो रही तब भी रुलाती है!!