कविता। "माँ"
सतीश "बब्बा"
घूम - बाग कर, थका - हारा,
मैं घर वैसे ही लौटता हूँ,
खाना - पीना, थाली - पानी,
सब कुछ ही तो पाता हूँ!
पर नहीं पाता एक वस्तु को,
रूखा - सूखा परोसकर,
हाथ फेरती सिर पर, कहती,
खालो, प्यार से पुचकारती!
सोने जाऊँ विस्तर पर,
आकर बैठ, हाथफेरती बदन पर,
थकी दूर होती मेरे तन की,
जैसे कोई जादू हुआ बदन पर!
काम पे जाता तो छुपटाती,
सारा, पूरा बदन चूमती,
जब बैठूँ पास दिल से लगाती,
दुनिया की सारी दुआएँ देती!
सच कहता सब कुछ है,
लेकिन माँ अपनी नहीं है,
कहाँ गई तू, पास बुला लो,
माँ तेरी याद बहुत आती है!!
सतीश "बब्बा