कविता। "पिता"
सतीश "बब्बा"
भूखा पिता था रोटी सेंकता,
जलने पर रोटी के साथ हाथ देखता,
पड़ गए फफोला हाथों में,
फिर भी औलाद को दुआएँ देता!
हे भगवान मैं नहीं जानता,
तू कैसा है, कहाँ रहता है, सिर्फ हूँ मानता,
मैं तुमसे विनती हाथ जोड़ करता,
मनुष्य बनाना पर, बाप बनना नहीं चाहता!
बाप से तो बिना औलाद अच्छा होता,
एक और बिनती मैं तुझसे करता,
बाप ही बनाना तो, बेटी का बाप,
निश्चय ही उसकी आँखों का तारा होता!
वह पिता हाथ के छालों को
बार - बार मुंह से फूँकता जाता,
पीठ में वजन बढ़ी, मुड़कर देखता,
थी माया की गठरी, उसका पोता!
आनंद आ गया पिता से दादा बनकर,
दादा पोता संग - संग लगे खाना - खाने,
आसीम खुशी पोता का घोड़ा बनते,
घुमा रहा था वह पिता दादा के नाते!!
सतीश "बब्बा"