कविता। "स्वच्छ पवन की खोज"
सतीश "बब्बा"
मैं खड़ा था गहन वन में,
खोजता उस पवन को,
जो उड़ा ले जाती हर बला को,
वर्षों पहले मिलती थी हमको!
खोजता हूँ एक वृक्ष,
जो पत्थरों के झुरमुटों में,
जाने कहाँ है खो गया,
एक अट्टहास गूँजा मैं अचम्भित!
पत्थरों से आवाज आई,
मानव तू हमसे भी कड़ा है,
तू ने ही पेड़ों को काटा है,
आक्सीजन खोजता हरजाई है!
हम सहन करते हैं ताप, ठंड भी,
तरसते हैं छाया अरू पवन को,
जिसे तू खोजने आया यहाँ, तू,
कब - तक जिएगा कृतिम पवन से!
आया पवन का तेज झोंका,
जिसे कोई रोकने वाला नहीं था,
उड़ चला मैं, चीत्कार करते,
अब कोई सहारा नहीं था!!