कविता। "प्यार"
सतीश "बब्बा"
वही मैं था, वही मेरी संगिनी थी,
वही घर था, वही चहारदीवारी थी,
वही ड्राइवर था, वही सड़क थी,
वही पेड़ था, वही हवा थी!
वही गीत थे, वही धुन थी,
वही बोल थे, वही तान थी,
वही कमरे थे, वही फर्श थी,
वही चाँद - सितारे, वही चाँदनी थी!
वही आंगन , वही वराण्डे थे,
वही खिड़कियाँ, वही दरवाजे थे,
वही खेत की मेंड़ , वही झरने थे,
वही गाँव की गलियाँ, वही नुक्कड़ थे!
तू वही मेरी संगिनी, तेरे प्यार में कमी नहीं थी,
तू थक कर चुप थी, मेरी साँसें चल रही थी,
तू शून्य में निहारती, मुझे कुछ कहना चाहती थी,
मैं जानता था, फिर भी मेरी जबान चुप थी!
मैं तेरी उस तकलीफ में जाना प्यार,
प्यार की पराकाष्ठा, सागर से गहरा प्यार,
अगर तेरी साँसें वापस नहीं होती, तो जाने क्या होता,
मैं होकर भी नहीं होता, नहीं होता मेरे लिए सं