कविता। "गाँव मेरे"
सतीश "बब्बा"
तुम इसीलिए नहीं आते,
शायद गाँव मेरे, गाँव मेरे,
अब वह दिल नहीं है पास मेरे,
मिलावटी खोवा भी नहीं मिले!
गाँव में मेरे अब छाँव नहीं है,
डुड़िया पीपल, बूढ़े बरगद वाली,
अब भाईचारे की जगह है गाली,
अब शराब के नशे में शोभित नाली!
गाँव में अब चौपाल नहीं है,
अतिथि के प्रति सम्मान नहीं है,
अब भाई को भाई से प्रेम नहीं है,
आल्हा, विश्रामसागर की दहाड़ नहीं है!
गाँव में बादल नहीं चरते हैं,
सावन में मोर नहीं नाचते हैं,
पहाड़ी से झरने नहीं झरते हैं,
गाय के चरवाहे नहीं बचे हैं!
गाँव में आप जरूर आना,
जब - तक मैं हूँ यादें दिला जाना,
मेरे आँसुओं से सत्कार स्वीकार करना,
बस कुछ दिन ही है मुझे रहना!!
सतीश "बब्बा"