सतीश "बब्बा"
है कैसी मेरी बारात सजी,
आज की जैसी, तब की नहीं सजी,
हरे बाँस में सफेद गोटा,
चलती संग - संग गगरी सजी!
तब बैठा था डोला में ऐसा,
किसी देश का बादशाह जैसा,
सब सोच रहे थे, बनने को मेरे जैसा,
आज नहीं चाहते होना मेरे जैसा!
तब दुल्हन संग आई थी,
बिदा वक्त में माँ, सखियाँ रोई थी,
मैं खुश था रौब बड़ी थी,
माँ परछन को द्वार खड़ी थी!
तब बाराती थे मेरे मन के,
आज बाराती अपने मन के,
आज मेरी बिदाई में सभी रो रहे,
रह गए मेरे मन में, मेरे मनके!
आज भी चढ़ा मैं चार कंधों में,
बाराती जाने क्या, सोचे मन में,
मैं आऊँगा, नहीं जानूँ किस घर में,
आज मुझे पौढ़ाया गया अग्नि सेज में!