सतीश "बब्बा"
यह खेल है एक दिन का,
सिर्फ फेर है तेरे समझ का,
यह जीवन है एक दिन का,
क्यों अभिमान करे एक दिन का!
सुबह की तरह बचपन आया,
कुछ दिन चढ़ा सा किशोर अवस्था,
भरी दोपहर सा जवानी आया,
कुछ दिन ढले सा प्रौढ़ावस्था!
फिर साँझ हुई सा बुढ़ापा घेरा,
थोड़ी रात गई सा जर्जरा,
और रात सा तमाम रोग घेरा,
गहरी रात में मौत सन्नाटा घेरा!
यही सिलसिला चलता रहता,
कोई नहीं इसे रोक सकता,
सुबह खेल - खेल में बीतता,
हल्की दुपहरी में पढ़ने जाता!
भरी दोपहर भोजन - भोग करता,
अपने बारे में भी कहाँ, कौन सोचता,
बीत गया दिन सा जीवन,
रात भयावह मौत देखकर सिर्फ सोचता!