सतीश "बब्बा"
सुबह हुई आँख खुली तो,
तो, देखा झाखड़झिल्ला,
दिन भर दौड़ा हाय - हाय में,
मिला भी तो वही बागड़बिल्ला!
रोज - रोज का यही तमाशा,
डाकू - कूदूँ, छलांग लगाऊँ,
समय नहीं कि, रुकूँ जरा सा,
इसे कहें जवानी अंधड़ सा!
पैनी सींग के बैल जैसा,
कगर गिराऊ बल में अंधा,
बरसाती मुलायम मिट्टी गिराऊ,
नहीं समझता था किसी को कुछ भी!
आखिर एक दिन पत्थर पड़ गया,
सींग टूट गई भीषण पीड़ा,
गई जवानी पौरुष थक गया,
पड़े कलपना, पीड़ा ही पीड़ा!
यही खेल है, इस जीवन का,
उलझा झाखड़झिल्ला,
बेटे, नाती - पोते, रिंकू, पिंकू, गिल्ला,
चला जाऊँगा, बिना खाए बागड़बिल्ला!!
सतीश "बब्बा"