कविता। "जादू की छड़ी"
सतीश "बब्बा"
मेरे घर में मेरी रहती थी,
मैं हंसता था वह हंसती थी,
मैं रोता था वह रोती थी,
मुझ पर न्यौछावर रहती थी!
मैं जरा भी उदास हो जाऊँ,
शिव से मन्नतें करती थी,
ओझाओं को लेकर आती थी,
मुझे सुलाकर ही सोती थी!
दूर न एक पल होने देती थी,
मेरी बलाएँ वह लेती थी,
मुझे देखकर खुश होती थी,
अपने हाथ से खिलाती थी!
चीथड़ों में लिपटी माँ होती थी,
चाँद का टुकडा़ मेरी माँ होती थी,
मेरे खातिर बापू से लड़ती थी,
पाजामा, कमीज की व्यवस्था कराती थी!
माँ चने की रूखी रोटी बनाती थी,
नमक धुरूक कर खिलाती थी,
माँ के हाथ में जादू की छड़ी थी,
माँ छू दे तो अमृत हो जाती थी!!
सतीश "बब्बा"