संस्मरण। "कबरा कुत्ता"
सतीश "बब्बा"
बचपन की यादें, बचपन के कुछ संस्मरण आज भी मन को रोमांचित कर जाते हैं, गुदगुदाते हैं। कभी माँ के हाथ से बनाई गई रहिला की रोटी, जिसमें नमक का लेपन लगा होता था। कभी माँ का बनाया माखन हम थपोल में भरकर मार देते थे। माँ के हाथ का दही, मट्ठा, वाह, आज भी याद करके मुंह में पानी आ जाता है।
हमारे बचपन में हल, बैलों की जोड़ी किसानों की शान हुआ करते थे। तब ट्रैक्टर का आविष्कार तक नहीं हुआ था।
बैलों को सानी - भूसा, खली - दाना और महुआ का चुहका देकर लोग चराया करते थे। सुंदर, तंदुरूस्त बैल किसान की हैसियत बताते थे।
खेतों में ज्वार के भुट्टे, बाजरे की बालियाँ जिसे बगीचे में बंदरों से खेत की रखवाली करते थे। भूनकर खाने में जो स्वाद होता था, वह अवर्णनीय है।
सुबह चिड़ियों के झुंड से मचान में चढ़कर गोफन चलाने का मजा ही और था। उगता सूरज की लालिमा का आनंद कुछ कहते नहीं बनता
चना - जवा और अरहर के लहलहाती फसल। चना की फलियों को भूनकर खाने में मजा ही और होता, क्या बताएं आज यादें बस शेष हैं और कुछ नहीं।
चैत्र में खेती कटती, संयुक्त खलिहान बीघों में फैले, पकी फसलों से भर जाते थे। और थोड़ी - थोड़ी दूर में और खलिहान हुआ करते थे। दँवरी चढ़ती, मड़ाई करते किसान।
रात में मड़ाई करते किसान जब सामयिक गीत गाते तो मन आनंदित, प्रफुल्लित हो जाता था। गहाई से ढेर लगे अनाज, ओसाई के लिए हवा का इंतजार फिर गीत गा - गाकर पवन देव को गीत के माध्यम से आवाहन, खुशी का माहौल होता था।
बड़े, बुजुर्ग की कहानी और अनुभव सुनना अपने आप में अद्वितीय होता था।
तब खलिहान ताकने बापू के साथ मैं भी चला जाता था। वाह, क्या साफ चन्द्रमा की चाँदनी , जिसका वर्णन कयी कवियों ने की है। ऐसा लगता मानो धरा में भगवान ने दूध गिरा दिया है।
तब गर्मी में शादियों की भरमार होती थी। अनाज बेंचकर किसान शादी, विवाह और भागवत पूजा करते, चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ होती।
रिश्तेदारी में पैदल जाना। बापू भी उस दिन एक शादी समारोह में शामिल होने गए थे तब तीन दिन की बारात हुआ करती थी। रात में उनको रुकना था। वैसे भी हमारे संबंध कुछ दूर मध्य प्रदेश में हैं।
उस दिन साथ के और सह खलिहान वाले भी नहीं थे। मैं अकेला था। फक चन्द्रमा थी। दूर सियारों की हूक से डर स्वाभाविक था। बाल मन डर तो लगता ही था।
हमने एक कुत्ता पाला हुआ था, नाम था जिसका कबरा। वह काले रंग में सफेद रंग की पट्टियों वाला था। इसीलिए उसे सभी कबरा कहकर बुलाते थे।
देशी कुत्ता, पेट भर खाना माँ देती थी। वह मेरे साथ था और मेरी चारपाई के पास गहाई से टूटे अनाज पर वह आराम कर रहा था। और खलिहान की रखवाली में चौकन्ना था।
मैं भी उसके रहते कहाँ डरने वाला था। फिर पड़ोसी खलिहानों में और लोग भी तो थे, जो मेरे पुकारने पर दौड़े चले आते।
लड़कपन था, बेफिक्र था और गर्मी की ठंडी - ठंडी हवा पाकर सो गया।
तब सरकार द्वारा पंचायत के माध्यम से साँड़ और डाँगर ( पड़वा )छोडे़ जाते थे। हमारे गाँव में भी हाथी की तरह मोटा - ताजा माथे में सफेद बाल टिकूली की तरह वाला डाँगर हुआ करता था।
रात में खलिहान खाने वह डाँगर आया होगा और कबरा उसे भगा दिया होगा।
अचानक मेरे बदन में कबरा कुत्ता मुँह मारने लगा , मैं नींद में था, उसकी अवहेलना करता रहा। तभी वह मेरी चारपाई के नीचे घुसकर चारपाई ही उठा दिया।
मैं गुस्से में कहा कि, "का है रे, कबरा के घोरा!"
कबरा अपना मुँह मेरे हाथ में मारकर अपना पैर चाटने लगा। ऐसा उसने बार - बार दोहराया।
मैंने झट उसका पैर पकड़ा और देखा तो उसके आगे के पैर में बड़ा सा करौंदा का काँटा चुभा था।
मैंने झट उसका काँटा निकाल दिया। उसने कूँ कूँ कूँ करके शायद मुझे धन्यवाद दिया होगा और अपना पैर चाटता हुआ मेरी चारपाई के नीचे पाँवताने में सो गया।
आज भी इस बात को याद करके मेरी आँखों से कबरा कुत्ता की याद में प्रेमाश्रु बह चलते हैं।
अब तो खेती - किसानी ही बदल गयी है और प्रकृति का रूप ही बदल गया है।