लघुकथा। "कलूटी"
सतीश "बब्बा"
उस दिन मुँह दिखाई में औरतें श्याम बिहारी की खूब निंदा करती नजर आ रही थीं। घर में भी उस काली - कलूटी की कदर नहीं थी। उस कलूटी ने बेटा भी जन्मा था, फिर भी उसकी बेइज्जती ही होती थी।
सालों बीत गए। कलूटी की सास बीमार होकर अस्पताल में भर्ती थी। कलूटी ही सेवा में थी। वार्ड के अन्य मरीजों के परिजनों ने श्याम बिहारी से पूछ ही लिया, "भाई साहब, यह तुम्हारी बेटी है या बहू?"
श्याम के आँसू छलक आते और संक्षिप्त सा उत्तर होता, "दोनों!"
घर आकर भी सास उठ बैठ नहीं सकती थी। तब कलूटी ने तनिक भी मन मलिन नहीं किया था और कहा, "यहीं बैठना मम्मी मैं सफाई करूँगी!"
कलूटी ने रात को रात और दिन को दिन नहीं समझा और एक छोटे बच्चे की तरह सास की गंदगी साफ करती थी। सास की बातें भी सुनती और हंसती, हँसाती रहती थी।
आखिर उसकी सेवा के बल पर सास चलने - फिरने लगी।
आज पूरे गांव के लोग और नात - रिश्तेदार कलूटी की प्रशंसा करके नहीं थकते हैं!