लघुकथा। "माँ का आँचल"
सतीश "बब्बा"
धोती फटी, मैली - कुचैली, सीलटी - दुपटी, सालों से नहीं साफ की गई थी। डर था कि, अगर पीली मिट्टी में सफेद रेहड़ी से पछारा गया तो फट न जाए। यही गरीबी होती है।
उसी धोती का एक छोटा सा पल्लू, जिसे कहते हैं आँचल। उसी आँचल में देवा जब छिपता था, तो उसे स्वर्गिक सुख से ज्यादा सुखद अहसास होता था।
खेल - कूद कर जब देवा थक जाता, तो माँ उसे आँचल में छिपा लेती। तब सारी थकान, सभी दर्द दूर हो जाते थे।
ऋषियों - मनीषियों, कवि और लेखकों ने लिखना चाहा लेकिन माँ के आँचल की कहानी लिख नहीं सके! वह छोटा सा धोती का टुकड़ा, सदैव बड़ा रहा। मैला - कुचैला आँचल भी अनमोल ही रहा।
आज देवा की माँ थक गई थी। नहाने के बाद अपनी धोती को उठाकर ले जाने की शक्ति नहीं थी। जब देवा से उसे ले चलने को कहा, तब देवा ने बुरा सा मुँह बनाया और वहाँ से चला गया।
भूरा दूर से यह तमाशा देख रहा था। और माँ जमीन में बैठ गई थी। फिर भी देवा के लिए किसी प्रकार की बददुआ नहीं निकली उसके मुँह से।
भूरा दौड़कर माँ की गीली धोती को उठाया और कहा, "माँ उठो, मैं अभी तेरे आँचल में छिपना चाहता हूँ!"
और जब माँ के पास माँ को उठाने भूरा गया, तो माँ का बदन ठण्डा पड़ गया था।
भूरा जो देवा का हम उम्र पड़ोसी था फफक कर रो पड़ा।
आज देवा के लिए वही माँ का आँचल, भारी वजनी हो गया था।
सतीश "बब्बा"