लघुकथा। "विधवा बहू"
सतीश "बब्बा"
गरीबदास की बड़ी बहू विधवा हो गई, भगवान का खेल भी अजब होता है। विधवा बहू अपने इकलौते बेटे के साथ अलग रहकर अपना जीवन यापन करती थी।
गरीबदास की पत्नी और परिवार वाले उसे कुलक्षिणी मानते थे। लेकिन गरीबदास की वह विधवा बहू उसके बेटे की तरह ही थी।
गरीबदास के और बहू बेटे, गरीबदास के ही साथ थे। उन्हें शक था कि, बाप गरीबदास के पास गुप्त माल पानी होगा।
विधवा बहू और पोते को भी आशाएं थी, लेकिन यह संतोष भी था कि, अगर सुख मिलना होता तो वह क्यों छोड़ जाते?
विधवा बहू, मेहनत मजदूरी से जीवन यापन करती थी।
गरीबदास नाम का गरीब नहीं था, वह वास्तविक गरीब था। और बुढ़ापा ने और गरीब कर दिया था।
गरीबदास की विधवा बहू जो भी नाश्ता, खाना बनाती, उसे गरीबदास को भी देती और गरीबदास प्रेम से उसे खाता था। यह और बहू - बेटों को पसंद न था।
एक दिन घर में मिठाई, नमकीन आई और बहू - बेटों ने मिलकर खाया, सास तक को नहीं दिया। गरीबदास की पत्नी को बहुत झटका लगा।
एक दिन सास बहुत ज्यादा बीमार पड़ गई। और बहुएँ पास तक नहीं आईं, तब बड़ी विधवा बहू ने कहा, "मम्मी, आप शौच के लिए परेशान मत होना, कहीं जाने की जरूरत नहीं है, मैं सब साफ करूँगी!"
विधवा बहू की सेवा देखकर,दिल से आशीषें, गरीबदास और उसकी पत्नी के निकली और आँखो से आँसू बह चले!
सतीश "बब्बा"