लघुकथा। "आजादी"
सतीश "बब्बा"
राजा चालबाज शेर सिंह शेरू को गुप्त जानकारियाँ मिल रही थी कि, जनता अब उसके फेंकू राज्य से ऊब चुकी है, वह बेरोजगारी और महँगाई से तंग आ चुकी है।
शेरू के शैतान दिमाग ने एक तरकीब सोची कि, अभी आजादी के सौ साल तो पूरे नहीं हुए, लेकिन इन अंधों, मूर्ख जंगल वासियों को तो डंडा पकड़ाना ही होगा।
शेरू ने आजादी का स्वर्ण जयंती वर्ष घोषित कर दिया। और हर घर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की घोषणा कर दिया।
अनपढ़, बेवकूफ जनता ने वही किया। दूध पैकेट से लेकर सब जगह जंगल का सतरंगा राष्ट्रीय ध्वज ही दिख रहा था और कुछ भी नहीं। नाली में बहते राष्ट्रीय ध्वज पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई।
सभी जंगल वासियों को पटवारी नहीं हैं और सभी जगह खाली होने से काम बाधित की कोई चिंता नहीं थी। शेरू और उसके चालबाज मंत्री गीदड़ सिंह के झूठे भाषण पर भरोसा था।
जंगल में एक ईमानदार, साहित्यकार / पत्रकार झब्बा नामक खरगोस भी रहता था। जो रोज जंगल के अखबारों और पत्रिकाओं में छपता था। झब्बा की पुस्तकें भी छपी थी।
झब्बा बहुत गरीब था। उसके घर में एक पैसा और एक दाना अनाज नहीं था। उसके पास पाँच रुपये ध्वज खरीदने के लिए कहाँ से आते। उसके घर में ध्वज नहीं फहरा रहा था।
आखिर शेरू के कार्यकर्ताओं ने यह जानकारी शेरू को दी। शेरू ने उस पर तुरंत राजद्रोह का मुकदमा पंजीकृत करवा दिया। और झब्बा को पड़ोसी जंगल देशाह का एजेंट करार देकर जेल भेज दिया।
झब्बा खरगोस, एक लेखक होकर जब जेल में प्राण त्यागा, तब कैदी जानवरों से यही कहा कि, "मेरी बात मानना ईमानदारी को मत अपनाना और एक सच्चा साहित्यकार / पत्रकार मत बनना!"
कुछ बुद्धिजीवी उसकी पुस्तकों पर शोध करने के लिए जुट गए थे।
सत्ताधीश शेरू को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता।
चोरी से बह आए आँसुओं को जेलर भोंदू भालू ने सबकी नजरें बचाकर पोंछ डाला।
दबी जबान कैदियों ने कहा, "क्या हम वास्तव में आजाद हैं? क्या हमें आजादी मिलेगी?"
सतीश "बब्बा"