लघुकथा। "देह और प्रेम"
सतीश "बब्बा"
धनीराम चौबे सिर्फ नाम के धनी नहीं थे। उनके पास खेती - बारी, ठेकेदारी, पैसों के भी धनी थे।
शादी - शुदा होने के बावजूद वे, पैसों के बल पर ऐयाशी भी करते थे।
अचानक उनकी पत्नी बीमार होकर कौमा में पहुँच गई।
चौबे जी इतना कभी दुखी और परेशान नहीं देखे गए थे। धनीराम चौबे ने अन्न - जल त्याग कर फकीरों की सी हालत बना ली थी।
चौबाइन को देखने एक सुंदर महिला आई थी। कभी उसने भी चौबे के पैसे खाए थे। और उसने अकेले आँसू बहाते धनीराम चौबे से कहा, "चौबे जी, क्यों अपनी हालत खराब कर रहे हैं, हम हैं न, आपके साथ!"
धनीराम चौबे ने कहा, "तुम! तुम सिर्फ देह दे सकती हो, प्रेम नहीं, प्रेम मुझे वही दे सकती है। जो वहाँ जिंदगी और मौत से लड़ रही है! तुम देह और प्रेम के फर्क को नहीं समझ सकती हो!"
तभी कराहते शब्द चौबाइन के निकले, "चौऽऽ चौबे जी!"
चौबे को मानो नया जीवन मिल गया हो और वह बेतहाशा दौड़ पड़ा और डाक्टर के रोकने पर डाक्टर के पैरों में गिर पड़ा!
डाक्टर ने, धनीराम को पत्नी से मिलने की इजाजत दे दी!
सतीश "बब्बा"