लघुकथा। "प्रधानपति"
सतीश "बब्बा"
आज रमुआ की तपस्या का सातवाँ दिन था। उसकी तपस्या से भगवान प्रसन्न हो गए। और प्रकट होकर कहने लगे, "भक्त रमुआ, मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ! मैं तुम्हें तीनों लोको का राज्य देना चाहता हूँ!"
रमुआ भगवान के चरणों में धड़ाम से गिरा और कहने लगा, "नहीं - नहीं प्रभु, मुझे तीनों लोको का राज्य नहीं चाहिए, उसे मैं क्या करूंगा? मैं तो एक लोक भी नहीं चाहता, फुरसत ही नहीं मिलेगी!"
भगवान ने आश्चर्य से कहा, "तो फिर तुम्हें क्या चाहिए?"
रमुआ ने हाथ जोड़कर कहा, "हे प्रभु अगर आप प्रसन्न हैं तो, मुझे ग्राम प्रधान बना दीजिए बस!"
भगवान ने कहा, "यह संभव नहीं हो सकता, क्योंकि आरक्षण के कारण, इस बार ही महिला सीट है, तुम्हारे गाँव की!"
रमुआ ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, "हे प्रभु, आरक्षण कोई भी हो, मैं जिसे खड़ा करू, वही जीते। और अगर इस बार महिला सीट है तो, और बढ़िया है, मुझे आप प्रधानपति ही बना दीजिए !"
भगवान ने कहा, "तथास्तु!"
और विस्मृति मुख से भगवान वहीं अंतर्ध्यान हो गए!
सतीश "बब्बा"