लघुकथा। "धनीराम"
सतीश "बब्बा"
धनीराम नाम का धनी था। गरीबी ने उसे घेर रखा था। वह रोज सुबह उठकर, नहा - धोकर मंदिर जाकर, घंटों पूजा - पाठ करता था।
धनीराम ईमानदार भी बहुत था, चोरी - छिनाला से दूर ही रहता था। और उसी गाँव का रामफल, जिसमें कोई भी अवगुण ऐसा नहीं था जो, उसके पास न रहा हो!
धनीराम और रामफल दोनों अब साठ की उम्र में पहुँच गए थे।
धनीराम के पास और गरीबी आ गई थी। वहीं रामफल के लड़कों ने, धंधा - पानी में इतना पैसा कमाया कि, गाँव में सबसे अधिक पैसे वाला हो गया। कुमारग - गामी रामफल के लड़के अच्छे और कुलीन घर में व्याह गए थे।
धनीराम के पत्नी की बीमारी से, कोई मुँह से बोलता नहीं था।
हारकर धनीराम, रामफल से अपनी बची हुई जमीन का सौदा करने पहुँच गया।
निर्दय रामफल ने कहा कि, "पूरी जमीन की रजिस्ट्री करना होगा और आधी जमीन का पैसा दूँगा। मंजूर हो तो बताओ, वरना रास्ता नापो!"
मरता क्या न करता, धनीराम को मानना पड़ा। और धनीराम पूरी जिंदगी मंदिर की मूर्ति में सिर पटकता रहा। लेकिन उन पत्थर की मूर्ति से कुछ भी तो नहीं मिला, सिर्फ अपमान के अलावा!
रामफल जो किसी पत्थर को नहीं पूजा और किसी पर रहम नहीं किया। वह नीरोग, ऐशोआराम की जिंदगी जी रहा है।
सतीश "बब्बा"