लघुकथा। "मतलबी और मैं"
सतीश "बब्बा"
उस दिन मैं किसी रचना की रफ तैयार कर रहा था कि, मतलबी काका लट्ठ लिए आ धमके और बैठकर कहने लगे, "क्या लिख रहे हो पत्रकार भाई?"
मैंने कहा, "एक आर्टिकल लिख रहा हूँ!"
उसने कहा, "ई, का होत है?"
मैं उनके बहस में पड़ना नहीं चाहता था। मैं चाहता था कि, जल्द उनसे वार्तालाप बंद हो जाए और वह चले जायें। इस उद्देश्य से कहा, "एक कहानी लिख रहा हूँ!"
मतलबी ने कहा, "इसे लिखने में क्या मिलता है, पैसा मिलेगा क्या?"
मैंने कहा, "नहीं!"
मतलबी हंसकर कहने लगा, "तू, पूरी जिंदगी लिखता रहा। और जमीन बेंच - बेंचकर खाता रहा, परिवार को भी खिलाता रहा, बहुत बेवकूफ है तू!"
कहता भी क्या मतलबी को समझाना बहुत कठिन था। फिर वह सच कह रहा था।
मतलबी नाम का मतलबी नहीं था। वह मतलबी था और आज के जमाने में होशियार और सबसे बड़ा चंट था।
मतलबी ने खूब पैसा कमाया था। अगर किसी को ब्याज में रुपये दिया तो, एक महीने ज्यादा का ब्याज लेता था।
मतलबी ने बंदूक का लाइसेंस पैसों के बल पर बनवाया था। पैसा था उसके पास तो गाँव में उसका भय था। भलाई लोग उससे दिली प्रेम नहीं करते थे। लेकिन उसके पैसों के धौंस में इज्जत उसी की करते थे। मुझे तो बस उपेक्षा ही मिलती थी।
मतलबी कयी दिन से बीमार था, लोग उसे देखने जा रहे थे। मैं भी देखने गया था।
मतलबी गंदगी में पड़ा था। उसके बदन में कीड़े पड़ गए थे। उसके परिजन उसके पैसों की पूरी जानकारी ले रहे थे। उसे देखकर घिन लगती थी। वह लोगों को देखकर आँसू बहा रहा था बस, इशारा भी कम कर पा रहा था।
आखिर एक दिन वह मर गया। और उसे भी जला दिया गया।
आज मतलबी को लोग भूल चुके हैं। जो याद करता है, गालियाँ देता है।
मैं अभी भी सोच रहा हूँ कि, 'मतलबी सही था या, मैं!'
मतलबी और मैं का आकलन मैं खुद नहीं कर पा रहा हूँ। आप जरूर कीजिए!
सतीश "बब्बा"
सतीश "बब्बा"
उस दिन मैं किसी रचना की रफ तैयार कर रहा था कि, मतलबी काका लट्ठ लिए आ धमके और बैठकर कहने लगे, "क्या लिख रहे हो पत्रकार भाई?"
मैंने कहा, "एक आर्टिकल लिख रहा हूँ!"
उसने कहा, "ई, का होत है?"
मैं उनके बहस में पड़ना नहीं चाहता था। मैं चाहता था कि, जल्द उनसे वार्तालाप बंद हो जाए और वह चले जायें। इस उद्देश्य से कहा, "एक कहानी लिख रहा हूँ!"
मतलबी ने कहा, "इसे लिखने में क्या मिलता है, पैसा मिलेगा क्या?"
मैंने कहा, "नहीं!"
मतलबी हंसकर कहने लगा, "तू, पूरी जिंदगी लिखता रहा। और जमीन बेंच - बेंचकर खाता रहा, परिवार को भी खिलाता रहा, बहुत बेवकूफ है तू!"
कहता भी क्या मतलबी को समझाना बहुत कठिन था। फिर वह सच कह रहा था।
मतलबी नाम का मतलबी नहीं था। वह मतलबी था और आज के जमाने में होशियार और सबसे बड़ा चंट था।
मतलबी ने खूब पैसा कमाया था। अगर किसी को ब्याज में रुपये दिया तो, एक महीने ज्यादा का ब्याज लेता था।
मतलबी ने बंदूक का लाइसेंस पैसों के बल पर बनवाया था। पैसा था उसके पास तो गाँव में उसका भय था। भलाई लोग उससे दिली प्रेम नहीं करते थे। लेकिन उसके पैसों के धौंस में इज्जत उसी की करते थे। मुझे तो बस उपेक्षा ही मिलती थी।
मतलबी कयी दिन से बीमार था, लोग उसे देखने जा रहे थे। मैं भी देखने गया था।
मतलबी गंदगी में पड़ा था। उसके बदन में कीड़े पड़ गए थे। उसके परिजन उसके पैसों की पूरी जानकारी ले रहे थे। उसे देखकर घिन लगती थी। वह लोगों को देखकर आँसू बहा रहा था बस, इशारा भी कम कर पा रहा था।
आखिर एक दिन वह मर गया। और उसे भी जला दिया गया।
आज मतलबी को लोग भूल चुके हैं। जो याद करता है, गालियाँ देता है।
मैं अभी भी सोच रहा हूँ कि, 'मतलबी सही था या, मैं!'
मतलबी और मैं का आकलन मैं खुद नहीं कर पा रहा हूँ। आप जरूर कीजिए!
सतीश "बब्बा"