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लघुकथा। "बेटी"

23 September 2022

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लघुकथा।    ष्बेटीष् 
                       सतीश ष्बब्बाष् 

        बैंड बजने की आवाज से पूरा मुहल्ला जुट गया था। तभी धीरू के एक पड़ोसी से किसी ने कहा, "भाई, लड़का पुष्प नक्षत्र में हुआ है, बहुत ही भाग्यशाली होगा!" 
         उस पड़ोसी ने चुपके से कहा, "ऐसा नहीं है, लड़का नहीं, लड़की हुई है!" 
        धीरे - धीरे पूरी समाज में, खुसर - फुसर होने लगी, लोग एक दूसरे के कान में कहने लगे, "अरे यार बिटिया हुई है!" 
         सभी वहाँ उपस्थित लोग, स्त्री - पुरुष जो उपहार  देना चाहते थे, जान गए कि, बेटा नहीं, बेटी हुई है। 
        उपहार देना तो दूर, धीरे - धीरे सभी खिसकना शुरू कर दिया। और अब धीरू और धीरू के घरवाले रह गए। 
        धीरू के भतीजी हुई थी। धीरू उसे लक्ष्मी आई है मान रहा था कि, 'मेरी दुकान चलेगी, घर में खूब बरक्कत होगी!' 
       वह बेटी होने और अपने चाचा बनने की खुशी में बाजे बजवा रहा था। वह पढ़ा - लिखा युवक बेटी को बेटे से बढ़कर मान रहा था। 
        लोगों का जाना उसे अच्छा नहीं लगा, फिर भी वह चुप रहा। 
       धीरू ने बाजगीरों से कहा, "आप लोग कोई अच्छी धुन बजाओ!" और खुद ठुमका लगा - लगाकर नाचने लगा। 
       धीरू ने बाजगीरों और गरीबों को कपड़े और अनाज, रुपये भी बाँटा। 
         उसे लोगों की सोच पर तरस और गुस्सा भी आ रहा था! 
                             सतीश "बब्बा" 


लघुकथा।    ष्बेटीष् 
                       सतीश ष्बब्बाष् 

        बैंड बजने की आवाज से पूरा मुहल्ला जुट गया था। तभी धीरू के एक पड़ोसी से किसी ने कहा, "भाई, लड़का पुष्प नक्षत्र में हुआ है, बहुत ही भाग्यशाली होगा!" 
         उस पड़ोसी ने चुपके से कहा, "ऐसा नहीं है, लड़का नहीं, लड़की हुई है!" 
        धीरे - धीरे पूरी समाज में, खुसर - फुसर होने लगी, लोग एक दूसरे के कान में कहने लगे, "अरे यार बिटिया हुई है!" 
         सभी वहाँ उपस्थित लोग, स्त्री - पुरुष जो उपहार  देना चाहते थे, जान गए कि, बेटा नहीं, बेटी हुई है। 
        उपहार देना तो दूर, धीरे - धीरे सभी खिसकना शुरू कर दिया। और अब धीरू और धीरू के घरवाले रह गए। 
        धीरू के भतीजी हुई थी। धीरू उसे लक्ष्मी आई है मान रहा था कि, 'मेरी दुकान चलेगी, घर में खूब बरक्कत होगी!' 
       वह बेटी होने और अपने चाचा बनने की खुशी में बाजे बजवा रहा था। वह पढ़ा - लिखा युवक बेटी को बेटे से बढ़कर मान रहा था। 
        लोगों का जाना उसे अच्छा नहीं लगा, फिर भी वह चुप रहा। 
       धीरू ने बाजगीरों से कहा, "आप लोग कोई अच्छी धुन बजाओ!" और खुद ठुमका लगा - लगाकर नाचने लगा। 
       धीरू ने बाजगीरों और गरीबों को कपड़े और अनाज, रुपये भी बाँटा। 
         उसे लोगों की सोच पर तरस और गुस्सा भी आ रहा था! 
                             सतीश "बब्बा" 

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गरीबा
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सतीश बब्बा की यह पुस्तक अपने - आप में अनूठी है, ऐसा लगता है जैसे हमारी ही कहानी लिखी गई है। एक बार शुरू कर दिया पढ़ना तो फिर अंत तक फिर बंद ही नहीं किया जाता है।
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