सतीश "बब्बा"
सावन का महीना, काँवर लेकर गाँव के बहुत से लोग देवघर जा रहे थे। सत्तू भी अपनी काँवर कंधे में धरकर शांति पूर्वक चल दिया था।
सत्तू कभी झूठ नहीं बोलता था। वह सुबह उठकर, नहाकर बारहों महीने पूजा - पाठ किया करता था। शिव मंदिर जाकर शिव को जल चढ़ाता था।
इतना धार्मिक, भक्त होते हुए भी, सत्तू ने कभी सुख नहीं देखा है।
सत्तू सदैव भगवान से दो वक्त की रोटी और मन की शांति माँगता रहा, लेकिन उसे कभी नहीं मिला। और वह अपने परिवार के साथ गरीबी, अपमान में जीता रहा।
आज तंग होकर वह शिवप्रतिमा और नंदी प्रतिमा के कान में यह कहा कि, "अगर तुम सुख - शांति नहीं दे सकता तो, फिर मौत ही दे दे! मौत तो तेरा कहना मानेगी। अगर और मुझे दुख देना है तुझे तो, दूसरे तन में दो गुना दे देना। लेकिन अब मैं जीना नहीं चाहता हूँ!"
फिर भी उसकी पुकार किसी देवता ने नहीं सुनी। वह समझ गया था कि, ए पत्थर की मूर्तियाँ, कोई देवता नहीं हो सकती। और झूठी कथा - कहानियों के दम पर, धर्म की दुकान चलाकर, पंडे - पुजारी धन कमाकर ऐश कर रहे हैं और कुछ नहीं।
सत्तू ने सभी देवताओं को त्याग दिया और परदेश चला गया। साठ की उम्र में और क्या करता वह, वह भी ढोंगी - बिल्ला, साधु वेश धरकर पैसा कमाना शुरू कर दिया।
उसके लिए यही इस उम्र में सही काम लगा। सत्तू पछता रहा था कि, इन देवताओं के चक्कर में, पूरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दिया। अपने को और अपने परिवार को नर्क में रखे रहा।
दिखावा ही धर्मात्मा और आंतरिक पापात्मा बनकर लोग, इसी तरह ऐशोआराम कर रहे हैं।