लघुकथा। "चंदा"
सतीश "बब्बा"
आज फिर मंदिर के लिए चंदा उगाही हो रही थी। कोई ग्यारह लाख, कोई इक्कीस लाख, कोई इक्यावन लाख और कोई - कोई करोड़ - करोड़ रुपये चंदा दे रहे थे। कोई चेक, कोई नगद दे रहे थे।
उसी महफिल में न जाने कहाँ से एक व्यक्ति उदास आँखों से यह सब टुकुर - टुकुर निहार रहा था।
उस मुसीबत के मारे व्यक्ति का नाम धनीराम जाने किस आशा से उसके माता - पिता ने रख दिया था। और उसके साथ में मेवालाल था।
धनीराम ने हिम्मत की और एक सेठ का पैर पकड़ लिया, जो एक करोड़ का चंदा देकर बहुत गौरवान्वित था।
"क्या है रे, सूट खराब कर दिया!" सेठ ने यह कहकर उसे झटकना चाहा।
गरीब की मजबूत पकड़, सेठ नहीं छुड़ा पाया। और धनीराम ने रोते हुए कहा, "सेठ जी, मेरी पत्नी बहुत बिमार है। दो लाख कर्ज लेकर उसे कोमा से बाहर ले आया हूँ। डाक्टर कहते हैं कि, एक लाख की व्यवस्था कर लो तो यह पूरी तरह से ठीक हो सकती हैं!"
सेठ ने बड़ी अकड़ से कहा, "मैं भिखारियों के मुँह नहीं लगाता, मंदिर को दिया हूँ तो, तुझे भी दूँ, ऐसा नहीं होगा। चल भाग यहाँ से, तुझे कुछ नहीं मिलेगा!"
धनीराम ने जोर - जोर से अपनी व्यथा सुनाई थी। मेवालाल की तो बोलती ही बंद हो गई थी। लेकिन उस समारोह में, कोई भी धनवान उनकी मदद नहीं किया।
धनीराम और मेवालाल को नहीं जाता देखकर, पुलिस के द्वारा जबरन उन दोनों को वहाँ से भगा दिया गया।
धनीराम की पत्नी और मेवालाल की माँ भरी जवानी में, पैसों के अभाव में, जीवन और मौत के बीच झूले में झूल रही थी। किसी भी धनवान सेठ ने उनकी मदद नहीं की!
चंदा उगाही का काम लगातार अभी भी जारी है।
सतीश "बब्बा"