लघुकथा। "सुख"
सतीश "बब्बा"
इतना बड़ा मैडिकल कालेज, अस्पताल में कही कोई खिलखिलाहट नहीं कि, कोई हंसता नजर आ जाए। हर किसी का मुँह लटका हुआ, चेहरा उतरा हुआ था। चारों ओर करूण क्रंदन अलग!
मरीज के साथ रहने वाला आदमी और मरीज से बढ़कर होता। मैं तो वहाँ का माहौल देखकर ही आधा हुआ जा रहा था।
आज छठा दिन था। डाक्टर राउण्ड में आए और मुझे बुलवाकर कुछ हिदायत दी और दवा लिखा पर्चा लेकर मैं दवा ले आया। एक नर्स मैडम ने कहा, "दस दिन की दवा है समय से दवा देना फिर दस दिन बाद ले आना। जाओ आज तुम्हें डाक्टर साहब ने डिस्चार्ज कर दिया है!"
सच मानो मुझे उससे बड़ा सुख कोई नहीं लगा। शायद इसे ही सुख कहते हैं।
और रोगी के परिजन पूछ रहे थे, "ठीक हो गया है आपका मरीज? छुट्टी मिल गई क्या?"
मैं उनकी मनोदशा को समझ रहा था जो अपने सुख के लिए दिन गिन रहे थे।
सतीश "बब्बा"