लघुकथा। "मंदिर में"
सतीश "बब्बा"
रमुआ दो दिनों का भूखा था। मंदिर की घण्टी सुनकर, कुछ आशाएं जागीं। शायद पीने को पानी मिल जाएगा और दो - चार घण्टे और काट लूँगा।
मंदिर - मस्जिद के तनाव के कारण, काम भी नहीं मिल रहा था। घर तक पैदल ही जाना होगा।
वह आशाएं लिए मंदिर मुख्य द्वार तक पहुँचने में कामयाब हो गया। पुजारी चम्मच से चरणामृत लोगों में बाँट रहा था। जिन लोगों ने दस - पाँच रुपए चढ़ावा दिया, उनको तीन - तीन छोटे चम्मच से चरणामृत वाला पानी और जिन लोगों ने सौ - पचास के नोट चढ़ावा में दिए, उनको लड्डू, नारियल प्रसाद मिल रहा था।
जिन लोगों ने कुछ नहीं दिया उन लोगों की ओर बुरा सा मुँह बनाकर पुजारी ने एक चम्मच पानी तक नहीं दिया।
रमुआ के पास कुछ भी नहीं था। वह जीते - जागते पुजारी के और पत्थर के भगवान के आगे गिड़गिड़ाते - गिड़गिड़ाते थक गया, लेकिन भगवान तो पत्थर के थे, मंदिर में आराम फरमा रहे थे। शायद ईमानदार रमुआ के पाप का लेखा - जोखा करवा रहे होंगे।
उस जीते - जागते, हाड़ - मांस के पुजारी को भी दया नहीं आई कि, पानी तक उसे दे दिया होता।
ऐसे मंदिर में, और क्या आशाएं की जा सकती हैं।
सतीश "बब्बा"