लघुकथा। "भगवान की माया"
सतीश "बब्बा"
रामसुमेर तीरथ, ब्रत और पूजा में ही लगा रहता था। बिना किसी स्वार्थ के बचपन, जवानी सिर्फ पूजा - पाठ और मंदिर, मंदिरों में वही पत्थर की मूर्तियों के दर्शन - पूजन नहलाने में लगा रहा। फिर भी उसकी बरक्कत नहीं हुई।
आज बीमारी और कर्ज से दबा वह मंदिर की हर मूर्ति से अपने जीवन की समाप्ति की याचना करता है, वर माँगता है। लेकिन परिणाम वही शून्य बटा शून्य!
रामसुमेर जान चुका है कि, इन मंदिरों में, इन मूर्तियों से कुछ भी मिलने वाला नहीं है , यह सिर्फ पत्थर हैं पत्थर।
रामसुमेर जान चुका है कि, अपने दिमाग और मेहनत से ही तरक्की और धन संभव है।
अब रामसुमेर के मेहनत करने के दिन जा चुके हैं। बेटे, बहुओं से भी उपेक्षित है।
रामसुमेर मंदिरों और मूर्तियों के सामने गिड़गिड़ाकर अब पूरी तरह जान चुका है कि, यह धर्म की दुकान है और सिर्फ कमाने का जरिया है।
आज रामसुमेर गंभीर था। वह एक दृढ़ संकल्प कर चुका था।
सुबह पूरे गांव में यह खबर आग की तरह फैल चुकी थी कि, भगत रामसुमेर, ईमानदारी की मूरत रामसुमेर आत्महत्या करके इस दुनिया से अलविदा कह गया है।
अब रामसुमेर को चिता में जलाने की तैयारी हो रही थी कि, किसी ने कहा, "सब भगवान की माया है !"
यह अंधविश्वासी समाज जाने कब सुधरेगा। वह अभी भी भगवान की माया समझ रहे हैं।
सतीश "बब्बा"