उसे बहुत आशाएं थी, भगवान शिव से, राम, हनुमान से, अपने बेटों और खुद से! मित्रों में पैसे वाले और गरीब भी थे। मित्रों में मित्र उसकी अपनी पत्नी थी।
बेटों की परिवरिश में, उसने कोई, कोर - कसर नहीं छोड़ी थी। जगह - जमीन, रुपये - पैसे को कुछ नहीं माना था क्योंकि, आशाएं थी कि, 'ए बड़े होकर सब ठीक कर देंगे!'
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। शादी के बाद माता - पिता, बेटों के परिवार के हिस्सा नहीं थे। सबकुछ थे, उनके ससुराल से संबंधित रिश्तेदार।
साठ पार की उमर में किसान और कर भी क्या सकते हैं। सिर्फ सोच सकते हैं, पहले की औलाद के रूप में, अपने किए काम, माता - पिता में भक्ति आदि - आदि।
आज उसकी पत्नी बीमार थी। दम तक दवा करवा रहा था। कर्ज भी बढ़ गया था। अब कहाँ से, कैसे पैसा आए। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, सारी आशाएं धुँधली हो रही थी।
मंदिर में सिर पटका, लेकिन वही जीरो बटा जीरो परिणाम।
आज पत्नी की दवा खत्म हो गई थी। लम्बी कराह, किसी भी पत्थर दिल का दिल पिघला देती और वह तो उसका पति था, दोनों एक दूसरे के साथी!
अब क्या करे सभी देवता पत्थर के क्या सुनते! आखिर रास्ता नहीं सूझा और दोनों ने कोई तीखा जहर खा लिए थे।
आज उनकी मौत चर्चा का विषय थी। अच्छाई - भलाई, बुराई की बातें पूरे गांव में थी।
बेटे - बहू लोकलज्जा के लिए, अंतिम संस्कार में जुट गए। उनके लिए एक सिरदर्द, माइग्रेन खत्म हो गया था।