लघुकथा। "हिंदू"
सतीश "बब्बा"
ट्रेन धड़धड़ाती अपनी मंजिल की ओर दौड़ रही थी। आधी रात का समय स्लीपर के सभी मुसाफिर सो रहे थे।
कुछ लुटेरे जो पिछले स्टेशन से चढ़ आए थे, सभी हिंदू थे। स्लीपर के लोवर सीट के वर्थ क्रमांक 57 का यात्री रामचंद्र भी हिंदू था।
सामने लोवर सीट पर मुस्लिम दंपति पहले से बैठे थे। रामचंद्र से कुछ औपचारिक बातें बस हुई थी।
फिर बीच की सीट पर अपनी वीवी को सुलाकर असलम भाई रामचंद्र की सामने वाली सीट पर लेटकर मोबाइल में मूवी देखने लगे थे।
तभी वो हिंदू लुटेरे, हिंदू रामचंद्र की छाती में देशी तमंचा डटा दिया। सभी यात्री गहरी नींद में सो गये थे क्योंकि अगला गाड़ी का स्टाप स्टेशन दूर था।
असलम भाई जाग रहे थे, शायद उनकी वीवी भी सोने की कोशिश में थी, सोई नहीं थी। पता नहीं असलम भाई क्या सोच रहा होगा। असलम की वीवी भी चुप थी।
एक लुटेरे ने अंगुली होंठ में रखकर इशारे से सभी को चुप रहने के लिए कहा। रामचंद्र से कहा, "जल्दी रुपए निकालो!"
कुल वो हिंदू लुटेरे तीन थे। और भी उस एस 2 के मुसाफिर जाग गए थे। सभी हिंदू थे और उनकी सिट्टी - पिट्टी गुम थी कि, कहीं हमारी तरफ न आएं।
अचानक असलम की वीवी तमंचा वाले के ऊपर कूद पड़ी। शायद असलम को इसी का इंतजार था। असलम ने फुर्ती से एक लुटेरे को जोर से लात मारी। लुटेरा अचानक हमले से गिर पड़ा।
कोई समझ पाता कि, तमंचा वाले का तमंचा असलम की वीवी के हाथ में था। बाजी पलट गई थी।
अब रामचंद्र भी संभल गया था। सभी हिंदू सह यात्री मूक दर्शक थे।
असलम, असलम की बेगम और रामचंद्र ने लुटेरों को भगा दिया था।
रामचंद्र ने असलम को गले से लगा लिया। असलम की वीवी की ओर बहना कहकर झुकना ही चाहता था कि, "बहन को गले नहीं लगाते?" ऐसा कहकर असलम की वीवी रामचंद्र से लिपट गई।
असलम ने कहा, "हम हिंदू, मुस्लिम मिलकर फिरंगियों को तो भगा दिया था, यह लुटेरे क्या चीज हैं भाई!"
कुछ पढ़े लिखे नवयुवक सह यात्रियों की आँखों में आँसू छलक आए।
सतीश "बब्बा"