लघुकथा। "पिता"
सतीश "बब्बा"
रमेश की लाश अभी घर के बाहर दरवाजे पर ही चारपाई में पड़ी थी। ऐसा लगता था कि, वह सो रहा है। एक पिता अपने गुनाह ढूँढ़ते - ढूँढ़ते इस दुनिया को अलविदा कह गया था।
रमेश आज पार्थिव शरीर में तबदील होकर शून्य हो गया था। रमेश पूरे जीवन में न किसी को ठगा और न झूठ बोला था, फिर भी गाँव के लोग उसके अहित में लगे रहे, ताकि उसकी मौके की जमीन लपक सकें। और वह अपने बेटों के लिए लड़ाइयाँ लड़ता रहा जीवन के अंत तक!
रमेश का इंजीनियर बेटा योगेश भी आ गया था। रमेश तड़पता रहा पोता - पोती को देखने के लिए। लेकिन योगेश ने ऐसा मौका नहीं दिया।
एक बार वाट्साप में रमेश ने लिखा था कि, "क्या पता मैं कब, इस दुनिया को अलविदा कह दूँ!"
तब योगेश ने जवाब दिया था कि, "तुम जैसे लोग जल्दी नहीं मरते!"
रमेश जवाब पढ़कर सन्न रह गया था। फिर भी योगेश उसके बच्चों, उसकी पत्नी की आशीषें ही देता रहता था। और उसके पास देने के लिए कुछ था भी तो नहीं।
रमेश के बेटे जो उसके पास थे, वह भी कुछ लेने की ही इच्छा रखते थे। योगेश दूर था पैसा भी कमा रहा था। वह भी बाप से कुछ लेने की ही सोचता था।
रमेश अपने लिए कुछ भी नहीं रखा था। वह बेटों की पढ़ाई, भलाई और शादी आदि में लगा दिया था, फिर भी शंका औलाद को थी कि, कुछ है। फिर भी वह चोर था।
आज जब उसके कमरे की तलाशी ली गई तो, उसमें सिर्फ किताबें थी और एक कागज में साफ लिखा मिला कि, "हे भगवान, मेरे बेटों और बहुओं, पोता - पोती को सदा सुखी रखना!"
कुछ न पाकर बेटों का मन दुखी हो गया था। पता नहीं बेटे और बहुएँ क्या सोच रहे थे।
जब रमेश के मित्र विष्णु ने कहा, "चलो योगेश जनाजा उठाओ!" तब योगेश की तंद्रा भंग हुई।
पूरा गाँव आ गया था, काफी भीड़ थी। बेटे बाप की अर्थी को कंधों में रखा। साथ में विष्णु मित्र के जनाजा को कंधा में नम आँखों से उठाया। और चल पड़े श्मशान की ओर!
आज विलीन हो जाएगा एक और पिता पंचतत्व में, अग्नि की लपट में कोई देख नहीं पाएगा कि, वह कहाँ चला गया, सबकी, औलाद की शिकायत लेकर!
विष्णु, भगवान से मना रहा था कि, "मुझे भी ले चल मेरे दोस्त के साथ भगवान!"
आखिर विष्णु भी तो पिता है, किसी का!
सतीश "बब्बा"