लघुकथा। "अंधेरा"
सतीश "बब्बा"
वह जीवन और मौत के बीच संघर्ष रत पचपन वर्षीय महिला अपनी शक्ति तक, मौत को हरा देना चाहती थी।
मुँह में लगा आक्सीजन, उसकी साँसों और धड़कनों का गवाह था।
अचानक नहीं पता उसके शरीर में कहाँ से शक्ति आ गयी कि, उसने आक्सीजन को मुंह से अलग कर दिया।
सिरहाने पति एक पैरों पर खड़ा था और दोनों बेटे सामने खड़े थे।
बेटों को पास बुलाकर उसने कहा, "अपनी - अपनी मेहरियन से कह देना कि, मेरे पति, तुम्हारे बाप को समय से खाना देंगीं, भूखों न मार डालेंगी!"
फिर "हे राम!" कहकर वह दुनिया से अलविदा कह गई। दलित समाज की वह महिला जो गरीबी में ब्याह कर आई और ससुराल आते ही मेहनत, संघर्ष करती रही।
पति की बातें, लात - घूँसा खाती रही और पति के पेट का ख्याल रखती रही।
बच्चों को पढ़ाना - लिखाना, शादी - विवाह सब मजदूरी करके किया था।
उसकी उस बात को सुनकर पति का कलेजा मुँह को आ गया। और वह खड़ा नहीं रह सका और वहीं जमीन पर धड़ाम से बैठ गया।
अब उसके चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था।
सतीश "बब्बा"