लघुकथा। "अरब पति नहीं बनना"
सतीश "बब्बा"
पत्नी की हालत बहुत ही नाजुक थी। वह आई. सी. यू. रूम में आक्सीजन के सहारे जिंदगी और मौत के बीच में संघर्ष कर रही थी। उसकी बड़ी बहू और छोटा बेटा अपने कर्तव्य निर्वहन में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे और रात को रात, दिन को दिन सब माँ के लिए एक करते नजर आ रहे थे।
मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इतने बड़े अस्पताल में कोई सुखी नजर नहीं आ रहा था। कोई रो - चिल्ला रहा था और कोई चुपचाप आँसू बहा रहा था।
एक ओटा में मैं भी शून्य में निहार रहा था। नींद कोसों दूर थी। सुबह के लगभग चार बजे झपकी आई या जाग्रत अवस्था में, मैं अभी भी तय नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे पास एक दैव फरिश्ता आकर खड़ा हो गया और कहने लगा, "तुम चाहो तो आज करोड़पति बन सकते हो, गाड़ी, बंगला शहर में हो सकता है। बोलो चाहिए!"
मैंने हाथ जोड़कर कहा, "मुझे करोड़पति क्या, अरब और खरबपति भी नहीं बनना है। मुझे गाड़ी, बंगला और शहर नहीं चाहिए, मुझे मेरी पत्नी चाहिए, मुझे झोपड़ी भी मत दो मैं उसके साथ जंगल - पहाड़, खुले आसमान में रह लूँगा, जिंदगी बिता लूँगा मैं!"
"उठो पापा, अम्मा हमें पहचान लिया है!" यह आवाज मेरे छोटे बेटे और बड़ी बहू की संयुक्त थी।
मैं उठकर आई. सी. यू. की तरफ दौड़ पड़ा!
सतीश "बब्बा"