विश्वामित्र-मेनका
गर्व था मुझे मेरे, मन के विश्वामित्र पर,
अभिमान था मुझे मेरे, चित्त के स्थायित्व पर,
स्वच्छंद मृग सा घूमता था, डोलता था हर समय,
स्वयं के ही अंतर्मन से, खेलता था हर समय।
पर उसी क्षण द्वार पर, मन के कोई दस्तक हुई,
कौशिक की कुटीर में, मेनका घर कर गई,
स्थायित्व मेरे चित्त का, बनकर पराग बिखर गया,
स्वच्छंद मृग चुपचाप, तेरे, सामीप्य में ठहर गया।
छिन गया जिस तरह से, तप सारा विश्वामित्र का,
उस अप्सरा ने हर लिया, ज्यों तेज़ उस व्यक्तित्व का,
मन मेरा विचलित हुआ, ज्यों हुआ विश्वामित्र का,
बन मेनका हर ले गईं तुम, वैराग्य मेरे चित्त का।
कस्तूरी इतिहास की, आज, फिर से बिखर गई,
तप, तेज़ सब निस्तेज़ कर, मेनका निज घर गई ।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”