मेरे मन के शांत जलाशय से,
ओ! वन की स्वच्छंद चँचल हिरनी
तूने नीर-पान करके-
शांत सरोवर के जल में
ये कैसी उथल-पुथल कर दी।
मैं शांत रहा हूँ सदियों से,
यूँ ही एकांत का वासी हूँ,
मैं देश छोड़ कर दूर वसा,
मैं तो एक अप्रवासी हूँ।
मेरे एकांतवास को भंग किया,
तुमने अपना परिचय देकर,
मेरे शांत अप्रवास को तोड़ने की
तुमने आज पहल कर दी;
शांत सरोवर के जल में
ये कैसी उथल-पुथल कर दी।
कोई फल पाने की वाञ्छा से
तप, योग, साधना में रत था,
संसार निरर्थक लगता था,
हर एक कामना से विरत था।
तुम वरदान हमारे तप का हो,
शायद ये ही फल चाहा था;
तप मेरा टूट गया अब तो,
मैंने तेरी कामना है कर ली;
शांत सरोवर के जल में
ये कैसी उथल-पुथल कर दी।
तुम कनक-हरिन की भांति दिखे,
आखेट को मैं राघव सा चला,
पर तुम माया थे मन्मथ के,
इस रहस्य से मैं अन्जान रहा;
मैं रोक सका न निज मन को,
मेरे मन के राघव की-
सीता को छल, तू चल दी;
शांत सरोवर के जल में
ये कैसी उथल-पुथल कर दी।
तुम कुसुम सरोज सरोवर के,
मैं भोला मधुप हूँ बेचारा,
तुम कारागार बने मेरी,
तेरे कर्षण में मैं गया मारा;
ये रंज नहीं, अब अजीवित हूँ,
अभिमान मुझे अब इसका है,
कि तेरे यौवन-रस की गगरी भी,
मैंने पराग से, ख़ाली कर दी;
शांत सरोवर के जल में
ये कैसी उथल-पुथल कर दी।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”