जनता सहती सबकुछ चुपचाप,
जैसे शांत और ठण्डी राख़,
होम राष्ट्र-हित करती निज हित,
किन्तु रहा उसे सब विदित,
सदियों तक बहलाई तुमने
निज हित ली अंगड़ाई तुमने,
चार दिनों के चार खिलौने,
कई दशक दिखलाये तुमने,
कई भाग कर बाँटा तुमने,
हक़ की बात पर देदी डांट,
रहे मिटाते राष्ट्र की शाख ।
जनता दिनकर भी पढ़ती है,
अपढ़ रखा फिर भी पढ़ती है,
याद करो वो दिन आया था,
टूटा युवराजों राजों का घमण्ड,
रथ छोड़ उतर भागना पड़ा था,
सोच रहे थे जो कि
अब वो ही बस,
इस देश राष्ट्र के कर्णधार।
जनता जो ठण्डी राख़ थी,
छिपी हुई उसमें भी आग थी।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "