चल पड़े जान को, हम हथेली पर रख,
एक सौगंध से, एक अंजाम तक ।
उसके माथे का टीका, सलामत रहे,
सरहदें भी वतन की, सलामत रहें,
जान से जान के, जान जाने तलक,
जान अर्पण करूँ, जान जायेंगे सब,
जान अपनी वतन पे, चढाऊंगा जब,
आँख देखे तिरंगे को, फहराने तक।
चल पड़े जान को, हम हथेली पर रख,
एक सौगंध से, एक अंजाम तक ।
दुश्मनों की कोई साख, रह जाए न,
घूरे माटी वतन वो-आँख, रह जाए न,
चाहे बैठा हो घर में, या सरहद पे हो,
रिपु बचने का कोई भी, अवसर न हो,
वीरों का काफिला, आगे पहुँचेगा जब,
अरि-हृदय काँप कर, बैठ जाएगा तब,
आगे बढ़ते रहें, पहुंचा श्मशान तक,
दुश्मनों को ये रंजिश, भुला जाने तक।
चल पड़े जान को, हम हथेली पर रख,
एक सौगंध से, एक अंजाम तक ।
घर में सोते हो जब तुम, आराम से,
घुमते शान से, मूंछों को तान के,
बैंक-बैलेंस अपना, बढ़ाते हो तुम,
धौंस और रसूख, जताते हो तुम,
याद रखना सदा, सुबह से शाम तक,
एक तपस्वी खड़ा है, सरहद पे तब,
धूल में दुश्मनों के, समा जाने तक।
चल पड़े जान को, हम हथेली पर रख,
एक सौगंध से, एक अंजाम तक ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”