20 October 2023
साथ सुहाना तब कहो,
जब मन साथ में होय,
मन भटके कहुं और तो,
साथ साथ न होय ।
@नील पदम्
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Just a curious word builderD
शब्द मुक्त न होते अधरों से वाक्य कंठ में अटक जाते, नहीं लेखनी होती जग में अक्षर न पृष्ठों पर आते। मन के उद्गारों की कैसे कोई छवि दिखला पाते, रचना कोई होती न जग में न चित्र, चल-चित्र ही बन पाते।
काश! मैं पाषाण होता, मेरे ह्रदय पर कोई पाषाण तो नहीं होता, काल के आघात से विखर जाता, वेदना से छटपटाकर नहीं रोता ।। पूष की ठिठुरन होती, या जेठ की अंगार तपन, श्रावण का सत्कार होता, या होता पतझड़ क
कभी नहीं हटती है, रहती है सदा चिपककर वो लिजलिजी सी हठी छिपकली कभी इस दीवाल पर, या छत पर, या उस दीवाल पर. गिरगिट रहता बगीचे में या बाहर लॉन की घास पर हरसिंगार, सुदर्शन, नीम और तुलसी पर करता रहत
धार तुम देते रहो रहोगे अभिशप्त, यदि करोगे सत्य का तिरष्कार, सकारात्मक-विचारवान बन, कर लो सत्य को स्वीकार; सत्य का स्वरुप ही है- निर्विकार स्वरुप, असत्य भ्रम का ज़ाल है, अज्ञान का प्रतिरूप; पर
वो बोगेनविलिया की बेल रहती थी उपेक्षित, क्योंकि थी समूह से दूर, अलग, अकेली, एक तरफ; छज्जे के एक कोने में जब देती थीं सारी अन्य लताएँ लाल, पीले, नारंगी फूल, वो रहती थी मौन, सिर्फ एक पतली-स
दोहरी होती गयी हर चीज़ दोहरी होती जिंदगी के साथ. आस्थाएं, विश्वास, कर्त्तव्य आत्मा और फिर उसकी आवाज ।। एक तार को एक ही सुर में छेड़ने पर भी अलग-अलग परिस्थितियों में देने लगा अलग-अलग राग,
मेरी ये अभिलाषा है, कि अपनी दोनों मुठ्ठियों में एक मुठ्ठी आसमान भर लूं. मेरी ये अभिलाषा है, कि आकाश को खींचकर, मैं धरती से उसका मिलन कर दूं. मेरी ये अभिलाषा है, कि अब की चौमासे में, पहली बूँद
विश्वामित्र-मेनका गर्व था मुझे मेरे, मन के विश्वामित्र पर, अभिमान था मुझे मेरे, चित्त के स्थायित्व पर, स्वच्छंद मृग सा घूमता था, डोलता था हर समय, स्वयं के ही अंतर्मन से, खेलता था हर समय। पर उसी क
इनसे न हो पायेगा कोई ढंग का काम, बॉलीवुड के शैतान हैं सचमुच भारी ढीठ । ढीठ बड़े ये भारी न चूकें कोई मौका धार्मिक भावनाओं को छेड़ने को ये मारे सब चौका । जब मारें ये चौका छूटे इनके भी छक्के, भा
आप जहाँ पाँव रखोगे, ये वहीँ अपनी पूँछ मानेंगे, इनकी यही फ़ितरत है, ये बिना डसे कहाँ मानेंगे। आपकी साधारण लब्धि भी इनके लिए कारण है एक, विष-वमन कर देंगे, वैसे है ये उदाहरण एक। आपके एक-एक शब्द मे
जरासन्ध के पुत्रों ने देश को गाली बना दिया, सम्पन्न था सब संसाधन से खाने की थाली बना दिया। ये कंस कुलों के कुल-घातक कृष्णा को चोर बताते हैं, पर बैठे हैं जिस शाख पे ये उसको ही तोड़ चबाते हैं। जय
भीगे मन को भीगा सावन, सूखा-सूखा लगता है । मूक अधर, सूनी नजरों से, चौपाल भला कब सजता है । आँखों की कोरें भीगी हों तो क्या करना सावन का, मन में यदि न उम्मीदें हों तो क्या करना सावन का, रहें
अरे ओ महात्मा ! याद है तुम्हें उस वस्त्रहीन को वस्त्र देने के बाद, अपने वस्त्रों को आजीवन सीमित कर लिया था तुमने । अरे ओ माधव ! स्मरण होगा तुम्हें उसके वस्त्रों के ह्रास का प्रयास, जब उसके वस
रूह बनकर उतरती है, रख लेता हूँ, आसमान से बरसती है, रख लेता हूँ, मुझ खाकसार को, क्या कायदा, क्या अदब, ये तो राम की रहमत है, लिख लेता हूँ। (C) @दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम्"
बच्चों से गलती हो जाती है हे हे ही ही करके हँसना, ये मर्दों का प्रदेश है फिर एक महिला का भी हे हे ही ही करके हँसना। सच तो ये है कि ये स्त्री का संघर्ष मंद हो उसका एक षड्यंत्र है । उन्हें कब पस
ऐ भाई ! जरा देख कर चलो जरा संभल कर चलो पर उससे पहले जाग जाओ | कब तक आँखें बंद कर काटते रहोगे वही पेड़ जिस पर बैठे हो तुम, ऐसा तो नहीं कि आरी चलने की आवाज तुम्हें सुनाई नहीं देती, या त
जब मैं तुमसे प्रश्न करूँगा, मुझे पता था यही कहोगे, साँसे तन से भारी होंगी, रोक रखोगे, बोझ सहोगे। शब्दों से परहेज़ तुम्हें है, शब्दों के संग नहीं रहोगे, तुम तो जादूगर हो कोई, आँखों से मन की बात क
बिलकुल सूर्योदय के समय नदी के घुमाव के साथ-साथ सरसों के फूलों भरे खेत, आँचल लहरा दिया हो तुमने जैसे। सूरज की पहली किरणों से नहाकर नदी चमक उठी है कैसी बचपन युक्त तुम्हारी, निर्दोष हँसी हो जैसे।
है वक़्त बड़ा शातिर, कमबख्त ज़माना है, सब बोझ अंधेरों का, जुगनू को उठाना है। आँधी को उड़ा करके, तूफाँ को जवाँ करके, वो बैठे हुए है क्यों, सूनामी उठा करके। एक आग लगाकर वो, कहते ये फ़साना है, दीपक के का
शतरंज की बिसात सी बनी है ज़िन्दगी, खुली हुई क़िताब के मानिंद कर निकल। भूल जा हर तलब, हर इक नशा औ जख्म, अब तो बस एक रब का तलबगार बन निकल। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”
कौन कहता है, सो रहा है शहर, कितने किस्से तो कह रहा है शहर। किसी मजलूम का मासूम दिल टूटा होगा, कितना संजीदा है, कितना रो रहा है शहर। ये सैलाब किसी दरिया की पेशकश नहीं, अपने ही आँसुओं में बह रहा है
पल्लू में उसके बंधे रहते हैं अनगिनत पत्थर, छोटे-बड़े बेडौल पत्थर मार देती है किसी को भी वो ये पत्थर। उस दिन भी उसके पल्लू में बंधे हुए थे ऐसे ही कुछ पत्थर। कोहराम मचा दिया था उस दिन उसने रेल
मेरी प्यारी सी बच्ची, पहले बसंत की प्रतीक्षा में, लेटी हुई एक खाट पर मेरे घर के आँगन में। प्रकृति की पवित्र प्रतिकृति एकदम शान्त, एकदम निर्दोष अवतरित मेरे घर परमात्मा की अनुपम कृति। देखती टुकु
मैं कैसे मान लूँ, कि- बसंत आ गया, जबकि सीमा पर हमारे सिपाही, पतझड़ के पत्तों की तरह गिर रहे हों । मैं कैसे मान लूँ, कि- पावस आ गया, जबकि शहीद की वेवा के आँसू, रो-रोकर सूख गए हों । मैं कैसे मान
कभी हुनर नहीं खिलता कभी जज्बा नहीं मिलता, हजारों बुलन्दियां होतीं, पर ये रुतबा नहीं मिलता। समन्दर हो जमीं हो या के हो आसमान की बातें, जो प्रिय कलाम ना होता इन्हें ककहरा नहीं मिलता। ये मेरे मुल
कविता का संसार गढ़ना है, बन प्रेरणा चले आओ, हाँ, मुझे उड़ना है, तुम पँख बनकर लग जाओ । देखना है मुझे, उस क्षितिज के पार क्या है, जानना है मुझे, सपनों का सँसार क्या है । कल्पना के संसार में, तैरन
जुबां पे दिलकश दिलफरेबी बातों का शहद, दिल में जहर-ओ-फरेब का समंदर हो ॥ मुस्कराहट के साथ फेरते हो नफरती तिलिस्म, सोचता हूँ कितने ऊपर औ कितने जमीं के अन्दर हो ॥ फूलों की डाल से दिखाई देते हो लेक
सुर्खाब की देखें सूरत , लोग दशहरी के दीवाने । सफेदा का रस अलबेला , चौसा चखे तोही मन माने । तोतापरी से शेक बनाए , हापुस देख के मन ना माने । देशी के दस बने अचार , फजली आते मन भरमाने । लंगड़ा भी त
इसकी तामीर की सज़ा क्या होगी, घर एक काँच का सजाया हमने । मेरी मुस्कान भी नागवार लगे उनको, जिनके हर नाज़ को सिद्दत से उठाया हमने । वक़्त आने पर बेमुरव्वत निकले, वो जिन्हें गोद में उठाया हमने
मेरे मन के शांत जलाशय से, ओ! वन की स्वच्छंद चँचल हिरनी तूने नीर-पान करके- शांत सरोवर के जल में ये कैसी उथल-पुथल कर दी। मैं शांत रहा हूँ सदियों से, यूँ ही एकांत का वासी हूँ, मैं देश छोड़ कर दूर व
फ़ितरत-ए-साँप आप जहाँ पाँव रखोगे, ये वहीँ अपनी पूँछ मानेंगे, इनकी यही फ़ितरत है, ये बिना डसे कहाँ मानेंगे। आपकी साधारण लब्धि भी इनके लिए कारण है एक, विष-वमन कर देंगे, वैसे है ये उदाहरण एक। आप
तेरा कंधे पे सर रखकर के, शुकराना अदा करना, रहे हरदम यही मंजर, मुझे कुछ याद ना रखना । घड़ी वो थी मुबारक, आपने बोला था शुक्रिया, एक बार बोले आप, खुदाया सौ बार शुक्रिया, इसी तरह नज़र-ए-इनायत हम पर तुम
राष्ट्र के कवि हो तुम तुम कवि विशुद्ध हो, शब्दों के चितेरे तुम, स्पष्ट अभिव्यक्त हो । हरिगीतिका के दक्ष तुम, काव्य के प्रत्यक्ष तुम, हो पूज्यनीय व्यक्ति तुम नव चेतना जगा गये, इस तरह समृ
दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्” एक विज्ञान की गलियों में भटक कर रास्ता भूल कर साहित्य की गलियों में पहुंचा यायावर; रोटी के जुगाड़ से बचे हुए समय का शिक्षार्थी; मौलिकता ही मूलमंत्र, मन में
कहने को तो कर किया , चिर- धाराओं में बदलाव, पर इससे मिटता कहाँ, आपराधिक मन-भाव । -दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "
धाराये बदली गईं, नूतन नव-परिधान, चलो-चलो इतना हुआ, अपने हुए विधान । -दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "
दासता के पीठ पर, खुरचे हुए निशान, कबसे पीछे था पड़ा, विदेशियों का बना विधान ।
चाहे न बदलती धारायें, पर रुक जाते अपराध, धर्म मार्ग पर जागते, करते जन-हित काज ।
धारायें बदली गईं, भारत के नए विधान, गौरव से मन पूर्ण है, इतना सुन्दर काम ।
आज़ादी पाई मगर, फिर भी रहे गुलाम, ये प्रतीक दासत्व का, मिट गया नामोनिशान ।
इश्क की पहली शर्त कि कोई शर्त ना हो 🌹 @नील पदम्
जब से मेरी आशिकी, उनके दिल में जा बसी, मैं तो हूँ पागल मगर, है गायब उनकी भी हँसी। @ दीपक कुमार श्रीवास्तव ” नील पदम् “
थोड़ी दुश्वारियां ही भली, या रब मेरे, दुश्मनों की अदावत तो कम रहती है। @नील पदम् 1
धूप की उम्मीद कुछ कम सी है, कि मौके का फायदा उठाया जाये। इतने सर्द अह्सास हुए हैं सबके, घर एक बर्फ का बनाया जाये ॥ @” नील पदम् “
जाने कैसे दौर से गुजर रहा हूँ मैं, वक़्त के हर मोड़ पे लड़खड़ाता हूँ, वो बन्दा ही जख्म-ए-संगीन देता है, जिसको पूरे दिल से मैं अपनाता हूँ ।। @*नील पदम् *
उम्मीदों के आसमान पे बैठे हुए थे जब, वो क्या गिरा आंखें जिसे संभाल ना पायीं ।। @ नील पदम्
आँखों में उसके बहते हुए धारे हैं, वो भी मुझसा कोई फरियादी है। @नील पदम्
कुंठाओं के दलदल में, उल्लासोँ के कमल खिलेंगे । यदि निराशा भरी दीवालों पर, आशा की खिड़की खुली रखेंगे ।। @नील पदम्
संबंधों के पुल के नीचे जब, प्रेम की नदियाँ बहती हैं, जीवन के दो पल में भी तब, पूरी सौ सदियाँ रहती हैं ॥ @नील पदम्
मेरे वश में नहीं है, तुम्हारी सजा मुकर्रर करना । तुम ही कर लो जिरह औ फैसला मुकम्मल कर लो ॥ @नील पदम्
जलने वालों का कुछ हो नहीं सकता, वो तो मेरी बेफिक्री से भी जल बैठे ॥ @नील पदम्
छोड़ भगौने को चमचा, चल देगा उस दिन । माल भगौने के भीतर, ना होगा जिस दिन ॥ @ नील पदम्
पत्थर का सफ़ीना भी, तैरता रहेगा अगर, तैरने के फलसफे को, दुरुस्त रखा जाये। @नील पदम्
मुनासिब है, ऊंचाइयों पर जाकर रुके कोई, उड़ने का हुनर अगर, बाज से सीखा जाये । @नील पदम्
कोई हुनर में तब तलक कैसे, माहिर हो, पूरी सिद्दत से जब तलक ना, सीखा जाये। “नील पदम् ”
जनाब मासूम जनता है, यहाँ सब चलता है। @ नील पदम्
वक़्त गुजरेगा आहिस्ता-आहिस्ता, इसकी सिलवटें हर चेहरे पर होंगी । @नील पदम्
हम इस उम्मीद में जागे की सवेरा होगा, पर वही बेगैरत हवायें थीं फ़िजाओं में । @नील पदम् 1
मुस्कुराने की आदत छोड़ नील पदम् , खुश रहना भी एक खता है समझो ॥ @नील पदम्
हर वक़्त इसी गम में दुश्मन, ग़मगीन हमारा रहता है, कोई बन्दा कैसे हरदम, यूँ खुशमिजाज रह लेता है। @नील पदम्
वक़्त सितम इस तरह, ढा रहा है आजकल, हाथ वायां दायें को, बहका रहा है आजकल ॥ @ नील पदम्
सत्य दीप जलता हुआ, लौ हवा हिलाए बुझ न पाए, करे प्रयास यदि कोई आँधी, चिंगारी बन आग लगाये । (c)@नील पदम्
अनुभव एक ताबीज है रखियो इसे सम्भाल, बुरे वक़्त के टोटके, लेगा सभी संभाल । (c)@नील पदम्
साँसें कागज की नाँव पर, चलतीं डरत डराए, जाने किस पल पवन चले, न जाने कित जाएँ । (c)@नील पदम्
जो निज माटी से करे, निज स्वारथ से बैर, उसको उस ठौं भेजिए, जित रस लें भूखे शेर।
सुन्दर तन तब जानिये, मन भी सुन्दर होय, मन में कपट कुलांचता, तन भी बोझिल होय । (c)@नील पदम्
पानी सा किरदार था, तो पसंद नहीं था, चढ़े रंग जब दुनिया के, तो ऐब कह दिया। जीने नहीं देती है ये, चाहे ऐसे चाहे वैसे, दुनिया ने शराफत से, कुछ पेश ना किया ॥ (C)@नील पदम्
अपनी आँखों की चमक से, डरा दीजिये उसे, हँस के हर एक बात पर, हरा दीजिये उसे, पत्थर नहीं अगर , तो मोम भी नहीं, एक बार कसके घूरिये, जता दीजिये उसे । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
जब कभी ये वतन याद आये तुझे, माटी, ममता, मोहल्ला बुलाये तुझे, दो नयन मूँदना, पुष्प चढ़ जायेंगे, संग मिलेंगी करोड़ों दुआयें तुझे । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
यहु तो विधाता की भली, स्मृति देत भुलाय, नहिं ते विपदा याद कर, जग जाता बौराय । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
आँखें बंद की हैं उनको आजमाने के लिए, वो आयेंगे भी या नहीं हमें मनाने के लिए । @नील पदम्
धरती का बेटा गया, मिलने मामा चाँद, मुश्किल थी थोड़ी मगर, पहुँचा वो दूरी फांद । @नील पदम्
प्रज्ञान चलता चाँद पर, छोड़त भया निशान, इसरो, भारतवर्ष की, यूँ बनी रहेगी शान । @नील पदम्
कुदरत से थोड़ी सी तो वफाई कर लो, आसमान पिता, धरती को माई कह लो, कब तक बोझ डालोगे पिता की कमाई पर, इस आबो-हवा की, थोड़ी सफाई कर लो । @नील पदम्
बहुत दिन हुए तुम बता दो कहाँ हो मेरी धडकनें सब सुनेगी कहाँ हो, मेरे लबों पर भी आयेंगीं खुशियाँ जहाँ हो अगर तुम वहीँ मुस्कुरा दो । @नील पदम्
बहुत दिनन के, बाद आयी हमका, मोरे पिहरवा की, याद रे ॥1॥ चाँदी जैसे खेतवा में, सोना जैसन गेहूँ बाली, तपत दुपहरिया में आस रे ॥2॥ अँगना के लीपन में, तुलसी तले दीया, फुसवा के छत की, बरसात रे ॥3॥ कु
कुछ कसर रह गई पक ये पाया नहीं, ज़िंदगी की तपिश में तपाया नहीं, थोड़ी मेहनत का तड़का लगा देते तो, न कहते कभी स्वाद आया नहीं । कुछ कसर रह गई, स्वाद आया नहीं ॥ (c)@दीपक कुमार श्र
कुछ नींदों से अच्छे-खासे ख़्वाब उड़ जाते हैं, कुछ ख़्वाबों से मगर नींदें भी उड़ जातीं हैं, नींद या ख़्वाबों की ताबीऱ आप पर निर्भर है, दोनों में से आप अहमियत किसे दे जाते हैं । @नील पदम्
मानुष तन तब जानिये, मानुष हृदय संजोए, मानुष मन के अभाव में, कैसा मानुष होय । @नील पदम्
स्वप्न झर रहे हों यदि, ताबीर हो पाती नहीं, प्रयास अपने गौर कर, रोक कैसी है यदि कहीं। @नील पदम्
आँखों की रौशनी से बड़ी, मन की रौशनी, इल्म की इबादत से जड़ी, स्वर्ण रौशनी, आँखों का देखना कभी, हो जायेगा गलत, पढ़ती नहीं गलत कभी, ये मन की रौशनी । @नील पदम्
मीठा फल संतोष का, आगे बढ़कर खाए, स्वाद बहुत मीठा लगे, दूजे को न मन ललचाए । @नील पदम्
साथ सुहाना तब कहो, जब मन साथ में होय, मन भटके कहुं और तो, साथ साथ न होय । @नील पदम्
पता नहीं कब सच कहा उसने, पता नहीं कब झूठ बोला उसने, उसकी आँखों को कभी पढ़ा ही नहीं, क्योंकि कभी गौर से देखा नहीं हमने।
दुनिया के सफीनों को, कागज पर बिठा दो तुम, कागज के सफीनों को, दरिया में उतरना है । @नील पदम्
अभी भी मैं, उसकी नज़र में हूँ मुसलसल, पर अभी भी वही कि, न ये प्यार नहीं । @नील पदम्
भोर होते ही कुछ मुस्कुराये वो, संताप स्वप्नों में छोड़ आये वो, वो पिछली दिनों के गीले रूमालों को, गुजरे कल में ही छोड़ आये वो । @नील पदम्
इतने भरे हुए थे वो कि छलकने ही वाले थे, बड़ी मशक्कतों-मुश्किल से आँसुओं को सम्भाले थे, उनकी उस दुखती राग पर ही हाथ रख दिया जालिम, जिसकी वजह से उसके दिल में पड़े छाले थे । @नील पदम्
कुछ भरे-भरे से हैं हम, ये जान कर, वो भी भर आये, मुझे अपना मान कर, और भर लिया हमें अपने आलिंगन में अपने, हम और भी भर आये, इतना पहचान कर । @नील पदम्
दर्द से इस कदर तड़प रहा था वो कि, अपना दर्द भूल कर उसको दवा दे दी, इस तरह तो कुछ ऐसा हुआ कि, जज को किसी मुल्जिम ने सजा दे दी । @नील पदम्
सुनो, बहुत दुष्कर है तुम्हारे लिए, मुझे स्पर्श कर पाना, तब जबकि मैं मुझ सा मुझमें हूँ । और, असंभव है तब तो, जब मैं मुझ सा, तुझमें हूँ । @नील पदम्
वो अब कभी किसी भी गली में दिख नहीं सकते भटकते आवारा, कैद कर लिया है अब उनको, दिल के कारागारों में हमने । @नील पदम्
तब कहती थीं कि नहीं, अभी कुछ भी नहीं, अब कहती हो की नहीं, अब कुछ भी नहीं, सच कब बोला तुमने, अब या तब, झूठ कब कहा तुमने, अब या तब । @नील पदम्
मैं तुझे ज़िन्दगी पुकारूँगा, मैं तेरा नाम कुछ सुधारूँगा । @नील पदम्
जब अजनबी से बढ़ी नजदीकियां, तो जाना कि कितना है अजनबी वो । @नील पदम्
कांटों का काम है चुभते रहना, उनका अपना मिज़ाज होता है, चुभन सहकर फिर भी सीने में, कोई गुल उसका साथ देता है । @ नील पदम् 1
काल के कुचक्र के रौंदें हुए हैं हम, महामारियों के दौर में पैदा हुए हैं हम, पर्यावरण, पृथ्वी, आवो-हवा से हमें क्या, बस खोखले विकास में बहरे हुए हैं हम । @नील पदम्
तेरा नाम नहीं लेंगे पर तू ही निशाना है, तेरे भरोसे उन्हें, व्यापार चलाना है । @नील पदम्
है दौर चला कैसा, है किसकी कदर देखो, पैसों की सिगरेट है, मक्कार धुआं देखो। सीधे-सरल लोगों की दाल नहीं गलती, अब टेढ़ी उंगली है हर सीधी जगह देखो । @नील पदम्
काली अंधियारी रात में चाँद का टुकड़ा जैसे, रोती रेत के बीच में हरियाली का मुखड़ा जैसे, जब तूने खोल कर अपनी सुरमई आँखों से देखा, मुझे ऐसा ही कुछ लगा था उस वक़्त विल्कुल ऐसे । @नील प
स्वार्थ के पेड़ पर जब लोभ भी चढ़ जाता है, जंगल के गीत सबसे ज्यादा लकड़हारा गाता है । @नील पदम्
बादा का वादा था, लेकिन जाम आधा था, पूरा भरकर ले आते, मेरा पूरा का इरादा था । @नील पदम् बादा = शराब
जो हो रहा है, जब होना वही है, तो काहे का रोना, जो होना नहीं है । @नील पदम्
वो करेंगे क्या भला, दो कदम जो न चला, जागने की हो घड़ी पर सुप्त है। @नील पदम्
सीढियां जो न चढ़ा, रह गया वहीं खड़ा, वो देखते ही देखते विलुप्त है। @नील पदम्
कट गईं हैं बेड़ियाँ, सब हटी हैं रूढ़ियाँ, अब पुरुषों से आगे मातृ-शक्ति है। @नील पदम्
ये कदम रुके नहीं, अब कभी थके नहीं, आसमान की परिक्रमा ही लक्ष्य है। @नील पदम्
धारायें बदली गईं, भारत के नए विधान, गौरव से मन पूर्ण है, इतना सुन्दर काम । धाराये बदली गईं, नूतन नव-परिधान, चलो-चलो इतना हुआ, अपने हुए विधान । दासता के पीठ
साथ था दो कदम, छाले पैरों में हैं, पूरी दुनिया भली, पर हम गैरों में हैं। किस तरह हम मुक़दमा बिठाएं यहाँ, हम तो आज़ाद हैं, पर वो पहरों में हैं। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
कैसे हम बोल दें, वो लाख चेहरों में हैं, दीप हमने जलाये अंधेरों में हैं, दीप तो जल गए , उनको दिखते नहीं, ज्यों कड़ी धूप हो, वो दोपहरों में हैं। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्" 1
शब्दों की तिजारत तुम हज़ार बातें कह लो, मैं बुरा न मानूंगा, ये प्यार है, कोई शब्दों की तिजारत नहीं। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
धारायें बदली गईं, भारत के नए विधान, गौरव से मन पूर्ण है, इतना सुन्दर काम । धाराये बदली गईं, नूतन नव-परिधान, चलो-चलो इतना हुआ, अपने हुए विधान । दासता के पीठ पर, खुरचे ह
क्या देखे हैं कभी? धूल में नहाये लोग, जमीन के नीचे से उठकर जब तक नहीं छूने लगीं वो इमारतें, मीनारें, अट्टालिकाएं आकाश को, घेरे रहे उनको ये धूल में नहाये लोग ।। चेहरे बदलते रहे और वक़्त भी
ऐ भाई ! जरा देख कर चलो जरा संभल कर चलो पर उससे पहले जाग जाओ | कब तक आँखें बंद कर काटते रहोगे वही पेड़ जिस पर बैठे हो तुम, ऐसा तो नहीं कि आरी चलने की आवाज तुम्हें सुनाई नहीं देती, या तुम्हारी
तुम लाख छुपाओ बात मगर, कल सबको पता चल जाएगा, पत्ता, पत्थर, पानी, कंकड़, चीख़ चीख़ बतलायेगा । यह डर जो तुम्हारे दिल में है, सब पता सरे-महफ़िल में है, खुलने वाला है ये राज अभी, जो राज अभी पर्दे
बलिदानी सिपाही शूल सी चुभती हृदय में उस शिशु की चीत्कार है, जनक जिसका है सिपाही, करता वतन से प्यार है । जो अपनी मातृभूमि के सदके जान अपनी कर गया, श्रृंगार-रत नवयौवना को श्वेत वसन दे गया; व
मत कहो नहीं, आज मुझसे कोई तस्वीर रंगने को मत कहो। क्योंकि, हर बार जब मैं ब्रश उठाता हूँ, और उसे रंग के प्याले में डूबता हूँ; उस रंग को जब कैनवास के धरातल पर सजाता हूँ; तो सिर्फ एक ही
आज जब जमाने का हिसाब निकला, बस कसूर मेरा ही बेहिसाब निकला । @ नील पदम्
अपने दिल की कोई जरा, हम बात क्या कह देते हैं। मेरी हर बात को झट, वो अपने पे ले लेते हैं ।। @नील पदम्
सुनो, किसी भी सफर में रहना, फोन जरूर करते रहना, हालात, ठीक ना हों अगर, मिस्ड काल ही देते रहना। और हाँ, कहीं भी चले जाना, आवाज जरूर देते रहना, गर, ना मुमकिन हो पुकारना, मन ही मन याद कर लेन
जब कभी ये वतन याद आये तुझे, माटी , ममता, मोहल्ला बुलाये तुझे, दो नयन मूंदना पुष्प चढ़ जायेंगे, संग मिलेंगीं करोड़ों दुआयें तुझे । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
अपनी आँखों की चमक से डरा दीजिये उसे, हँस के हर एक बात पर हरा दीजिये उसे, पत्थर नहीं अगर तो मोम भी नहीं, एक बार कसके घूरिये, जता दीजिये उसे । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
जात-पात और धर्म लिखो करवाते रहो बवाल, आने वाली पीढ़ियां पूछेंगी कई सवाल॥ (c) @ दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "
आजादी के देखो मायने, कैसे करे गए हैं अनर्थ, क्रांति के बलिदान सब, गए जाया हुए अब व्यर्थ । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
बहा पसीना व्यर्थ में, रोया यदि मजदूर, जाया उसका श्रम हुआ, पारितोषिक हो मजबूर, नहीं आजादी आई अभी, समझो वो है अबहूँ दूर । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
जब मातृभूमि को माँ माना था अशफाक, भगत, बोस से जाना था ये गाँधीजी ने भी माना था कि भारत माँ आजाद करें हम गुलामी की जंजीरों से । लेकिन भूल गये तुम सब-कुछ माँ की स्तुति मंजूर नहीं है मैं मानू
मीठा खाय जग मुआ, तीखे मरे ना कोय, लेकिन तीखे बोल ते, मरे संखिया सोय ॥ @नील पदम्
कुछ नींदों से ख़्वाब उड़ जाते हैं और कुछ ख़्वाबों से नींदें उड़ जातीं हैं @नील पदम्
मन में जैसा घटेगा क्यों लिखूँ, सिर्फ छंदबद्ध तुकांत कविताऐँ । आपकी सलाह- आपके मशविरा का शुक्रिया, आपकी डांट भी सर-माथे पर लेकिन माफ़ कीजियेगा ये जो मात्राएँ और तुक नापते हुए चलते हैं जब तो
क्यों इंसानियत के क़त्ल हो रहे हैं हर जगह, मजहब-ए-इंसानियत को कोई मानता नहीं, मशरूफ हैं औरों के हक पर निगाहें गड़ी हुईं, कोई अपने हक की बात क्यों जानता नहीं । @नील पदम्
वो करेंगे क्या भला, दो कदम जो न चला, जागने की हो घड़ी पर सुप्त है। सीढियां जो न चढ़ा, रह गया वहीं खड़ा, वो देखते ही देखते विलुप्त है। पर उधर भी देखिये, हो सके तो सीखिये, विज्ञान
आजाद हुए थे जिस दिन हम टुकड़ों में देश के हिस्से थे, हर टुकड़ा एक स्वघोषित देश था छिन्न-भिन्न भारत का वेश। तब तुम उठे भुज दंड उठा भाव तभी स्वदेश का जगा सही मायने पाए निज देश। थी गूढ़
शब्द ही सबसे बड़े गुरु हैं, शर्त है मन छप जायें, मीठे ते अनुकूल करे, कड़वे भी देत मिलाय , किसी तरह का शब्द बाण मन के अंदर गड़ जाये, चेला बाद में सोचता, जब जीवन ध्येय वो पाये । @नी
तुम अब घर से बाहर भी मत निकलना और तुम मत अब घर के भीतर भी रहना । मत सोचना कि चंद्र और सूर्य में या फिर इस पृथ्वी पर भी एक देश में, किसी शहर में किसी गांव में या मोहल्ले में या फिर किसी मक
कृष्ण छवि को निहारता मैं, बांके बिहारी धाम रे, कौन बताएगा मुझे अब, क्या है हमारा नाम रे । अस्तित्व सम्मिलित हो गया, प्रभुजी के ही नाम में, कैसे कहूँ कृष्णा अलग, और है अलग मेरा नाम रे ॥
कृष्णा मुझे बता दे जाकर कहाँ छिपा है, घंटे हैं चार बीते मैया को न दिखा है, मैया को सब पता है तेरी शैतानियाँ बहुत हैं, नादान बचपने की कहानियाँ बहुत हैं । @नील पदम्
कृष्णा तुम्हारी बँसी, सबको लगे पुकारे, जिसने भी इसे सुना है, कहे नाम है हमारे । @नील पदम्
ख्वाहिशों के कितने भी पूरे हुए मुक़ाम, अगली को उठ खड़ा हुआ मन में नया मलाल । @नील पदम्
जनता सहती सबकुछ चुपचाप, जैसे शांत और ठण्डी राख़, होम राष्ट्र-हित करती निज हित, किन्तु रहा उसे सब विदित, सदियों तक बहलाई तुमने निज हित ली अंगड़ाई तुमने, चार दिनों के चार खिलौने, कई दशक दिखलाये तुम
पता पिता से पाया था मैं पुरखों के घर आया था एक गाँव के बीच बसा पर उसे अकेला पाया था । माँ बाबू से हम सुनते थे उस घर के कितने किस्से थे भूले नहीं कभी भी पापा क्यों नहीं भूले पाया था । ज
कितनी भी चौड़ी दरार हो, तुमको तो बस कि नहीं हार हो, किसी भी हद तक भाड़ में जाएँ, हाथ उपहार, गले में हार हो । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
सृष्टि ने जो रच दिया, सब उसको रहे बिगाड़, तभी सृष्टि-दृग तीसरी, सब छन में करत कबाड़ । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
काट दिए सब पेड़ औ, सब पर्वत दिए उखाड़, धरती का पानी सोखकर, मिट्टी भी दई उजाड़ । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
नदियों में घोला जहर, वन में लगाई आग, वो दिन अब न दूर हैं, कोसत रहियो भाग । (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
जहरीली कर दी हवा, प्रतिदिन गरल मिलाय, कैसे-कैसे कर्म हैं, मानवता मिट जाए। (c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"
क्या वजह करते फिरें क्यों वो राक्षसी कृत्य मानव को मानव खा रहा करते दानवी नृत्य। आखिर क्या इनको चाहिए पूछो इनसे जाय, कौन सी इनकी सोच है जो मानवता को खाय। आतंकी ये सोच राक्षसी क
देखें क्या है राम में, चलें अयोध्या धाम में, तैयारी हैं जोर-शोर से सभी जुटे हैं काम में । कौन राम जो वन को गए थे, छोटे भईया लखन संग थे, पत्नी सीता मैया भी पीछे, रहती क्यों इस क
चल पड़े जान को, हम हथेली पर रख, एक सौगंध से, एक अंजाम तक । उसके माथे का टीका, सलामत रहे, सरहदें भी वतन की, सलामत रहें, जान से जान के, जान जाने तलक, जान अर्पण करूँ, जान जायेंगे सब,
है चन्द्र छिपा कबसे, बैठा सूरज के पीछे, लम्बी सी अमावस को, पूनम से सजाना है। चमकाना है अपनी, हस्ती को इस हद तक, कि सूरज को भी हमसे, फीका पड़ जाना है। ये आग जो बाकी है, उसका तो नियंत्रण ही, थोडा सा
सत्य होता सामने तो, क्यों मगर दिखता नहीं, क्यों सबूतों की ज़रूरत पड़ती सदा ही सत्य को। झूठी दलीलें झूठ की क्यों प्रभावी हैं अधिक, डगमगाता सत्य पर, न झूठ शरमाता तनिक। सत्य क्यों होता प्रताड़ित गु