है वक़्त बड़ा शातिर, कमबख्त ज़माना है,
सब बोझ अंधेरों का, जुगनू को उठाना है।
आँधी को उड़ा करके, तूफाँ को जवाँ करके,
वो बैठे हुए है क्यों, सूनामी उठा करके।
एक आग लगाकर वो, कहते ये फ़साना है,
दीपक के कांधों पर, ये आग बुझाना है।
कुछ दूर की कौड़ी थी, अब उनके हाथों में,
वो जान गए हैं कब, कहाँ हाथ लगाना है।
नुस्खा-ए-बेहोशी भी, है खूब उन्हें मालूम,
बेहोश रखें कैसे, कैसे होश में लाना है।
मेरा दौर-ए-मुफलिसी है, शहर-ए-सदर हैं वो,
हर घटिया नज्म उनकी, दिलचस्प बताना है।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”