काश! मैं पाषाण होता,
मेरे ह्रदय पर कोई पाषाण तो नहीं होता,
काल के आघात से विखर जाता,
वेदना से छटपटाकर नहीं रोता ।।
पूष की ठिठुरन होती,
या जेठ की अंगार तपन,
श्रावण का सत्कार होता,
या होता पतझड़ का रुदन,
सब कुछ होता जाना पहचाना,
इस धुंध में भटककर नहीं खोता ।।
काश! मैं पाषाण होता ।।
दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”