मेरी ये अभिलाषा है,
कि अपनी दोनों मुठ्ठियों में
एक मुठ्ठी आसमान भर लूं.
मेरी ये अभिलाषा है,
कि आकाश को खींचकर,
मैं धरती से उसका
मिलन कर दूं.
मेरी ये अभिलाषा है,
कि अब की चौमासे में,
पहली बूँद के साथ मैं बरसूँ.
मेरी ये अभिलाषा है,
कि चाँद पर पहुंचकर,
उसकी कालिमा को धो दूँ
मेरी ये अभिलाषा है,
कि इस बार पूरनमासी को
बनकर अमृत मैं बरसूँ.
मेरी ये अभिलाषा है,
कि अबकी बसंत में ,
बेला के फूलों की तरह महकूँ.
मेरी ये अभिलाषा है,
कि फूलों के चटकने पर,
बन-कर सुगन्धित पराग बिखरूं.
पर क्या
मैं मुठ्ठी में भर
सकता हूँ आसमान?
या फिर
धरती, आकाश का मिलन करा सकता हूँ?
क्या पावस में बरस
सकता हूँ मैं?
या फिर,
चाँद पे जा सकता हूँ?
या बरस सकता हूँ मैं
बनकर अमृत?
क्या
बेला के फूल और
पराग-सी
सुगन्धि बिखेर सकता हूँ?
क्या
मैं अपनी अभिलाषाओं
के पंख लगाकर,
अपने इस मनोहारी स्वप्न को
एक धरातल दे सकता हूँ?
क्या मैं
अपनी किसी भी अभिलाषा को
पूर्ण कर सकता हूँ?
(C)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"