ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् . होतारं रत्नधातमम् (ऋग्वेद मंडल १, सूक्त १, मंत्र १)
I Laud Agni, the chosen Priest, God, minister of sacrifice, The hotar, lavishest of wealth.
इस मंत्र का भावार्थ है कि, मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ। वे यज्ञ के पुरोहित , दानादि गुणों से युक्त , यज्ञ में देवों को बुलाने वाले एवं यज्ञ के फल रूपी रत्नों को धारण करने वाले हैं।
हे अग्नि देव तुम्हें नमन हो
हो यज्ञ के पुरोहित तुम हो
हवि साधन दान के धन हो
देवों के आवाहन तुम हो
यज्ञ फल रत्न धारक भी हो
हे अग्नि देव तुम्हें नमन हो
ऋग्वेद के पहले ही मंत्र में अग्नि की स्तुति है क्योंकि अग्नि के साधन से ही यज्ञ संभव है, यज्ञ के द्वारा ही देवों को दान पहुँचाने का मार्ग बनता है और उसी मार्ग से देवों का अपने साधक के कल्याण हेतु यज्ञ के पारितोषिक प्रदान करने के लिए आगमन संभव है।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"