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कृष्ण कथा

26 August 2024

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कृष्ण कथा 

थी रात घनी कारी अँधियारी, 
मेघ झूम कर बरस रहे थे ।
जल थल और आकाश मिलाने 
हेतु ज़ोर से गरज रहे थे ||
यमुना भी थी चढ़ी हुई काँधे 
तक, मेघों का गर्जन था ।
हरेक भवन में व्याकुलता के 
दानव का ही बस नर्तन था ||

कारागृह के दरवाज़े पर 
कुछ प्रहरी पहरा देते थे ।
भीतर प्रसव वेदना से व्याकुल 
नारी के स्वर उठते थे ।।
तभी ज़ोर की बिजली कड़की, 
नेत्र सभी के बन्द हो गए ।
मूर्च्छित होकर सारे प्रहरी 
धरती पर अवलुंठित हो गए ||

प्रणव समक्ष खड़े थे, देखा 
देवसुता और वासुदेव ने ।
मनमोहक मुस्कान लिए वे 
जागो माँ, ये पुकार रहे थे ||
तभी मधुर शिशु क्रन्दन ने 
कानों में अमृत घोल दिया था ।
श्यामवर्ण मोहक बालक ने 
मात पिता को मुग्ध किया था ||

खुलीं सकल बेड़ियाँ पिता की, 
सारे प्रहरी सोए पड़े थे ।
रखा सूप में शिशु को, पत्नी 
से आज्ञा ले निकल पड़े थे ||
चरण पखारे हरि के यमुना, 
शान्त भाव से नीचे आतीं ।
सारी जल की निधियाँ दर्शन 
के हित हरि के, दौड़ी आतीं ||

निकट लिटा जसुदा के कान्हा 
को, कन्या को गोद उठाया ।
कारागृह में पहुँच योगमाया 
ने क्रन्दन तीव्र मचाया ||
जागे प्रहरी सभी, तो देखा, 
कोमल शिशु धरती पर पाया ।
तुरत संदेसा सुनकर मामा 
निज भवनों से भागा आया ||

रोका बहुत देवकी और वसुदेव 
ने, लेकिन कंस न माना ।
दिया धरा पर पटक बालिका 
को, एक पल भी शोक न माना ||
“तेरा मोक्ष कराने के हित 
जन्म हो चुका है भगवन का” ।
देकर यह संदेश, योगमाया 
ने भव सागर गुँजाया ||

कारागृह में जन्म लिया, 
वसुदेव देवकी सुत थे कान्हा ।
पर आँचल था भरा यशोदा 
का, जिस गोदी खेले कान्हा ||
कालसर्प का योग बड़ा भारी 
कुण्डली में पड़ा हुआ था ।
कितने रोगों दुर्घटनाओं 
के कष्टों से भरा हुआ था ||

नष्ट किया उन सबही को, और 
अमित पराक्रम दिखलाया था ।
माखन की चोरी करके, सबके 
ही मन को मोह लिया था ||
कैसे हो सन्तान का पालन,
मात पिता को समझाया था ।
कितनी नैतिक शिक्षाओं को 
निज लीला से सिखलाया था ||

राजनीति और कूटनीति का 
मर्म, तुम्हीं ने समझाया था ।
साम दाम और दण्ड भेद सब 
उचित युद्ध में, सिखलाया था ||
प्रेम और सौहार्द रहे, यह 
मर्म तुम्हीं ने समझाया था ।
कर्म करो निर्लिप्त भाव से, 
दर्शन यह भी दिखलाया था ||

जो सम्मान प्रकृति को दोगे, 
वह भी बिखराएगी ममता ।
इसी हेतु निज अँगुली पर 
गोवर्धन को भी उठा लिया था ||
सारी गउएँ कामधेनु हैं, 
अमृतपान कराएँगी ही ।
इसीलिए गउओं की रक्षा 
का भी प्रण तुमने धारा था ||

सूझ बूझ से कर्म करो, निज 
भाग्य विधाता बन जाओगे ।
कितने ही रण छोड़ो, करो 
प्रयास, लक्ष्य को पा जाओगे ||
दया प्रेम करुणा के सागर, 
तुमको वसुधा शीश नवाती ।
और चरण पखारे सागर, 
नदियाँ कण्ठ हार बन जातीं ||

आकाश तुम्हारा नवल क्षेत्र, 
द्युलोक तुम्हारा मस्तक है ।
यह धरा सकल है चरण कमल, 
नासिका कुमार अश्विनी हैं ||
तुम सभी सूर्य चन्दा तारे 
ग्रह नक्षत्रों के स्वामी हो ।
ये सभी तुम्हारी अनगिन देह 
यष्टियों के ही रूप तो हैं ||

तुम ब्रह्मरूप में प्रकट हुए, 
विस्तार सृष्टि का तुमसे ही ।
तुम सकल कलायुत पूर्ण पुरुष, 
है कठिन बहुत तुम सा बनना ||
पर सद्भावों से युत होकर 
मानव माधव बन जाता है ।
और अन्त समय में कृष्णरूप 
हो, ब्रह्मलीन हो जाता है ||

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