कृष्ण कथा
थी रात घनी कारी अँधियारी,
मेघ झूम कर बरस रहे थे ।
जल थल और आकाश मिलाने
हेतु ज़ोर से गरज रहे थे ||
यमुना भी थी चढ़ी हुई काँधे
तक, मेघों का गर्जन था ।
हरेक भवन में व्याकुलता के
दानव का ही बस नर्तन था ||
कारागृह के दरवाज़े पर
कुछ प्रहरी पहरा देते थे ।
भीतर प्रसव वेदना से व्याकुल
नारी के स्वर उठते थे ।।
तभी ज़ोर की बिजली कड़की,
नेत्र सभी के बन्द हो गए ।
मूर्च्छित होकर सारे प्रहरी
धरती पर अवलुंठित हो गए ||
प्रणव समक्ष खड़े थे, देखा
देवसुता और वासुदेव ने ।
मनमोहक मुस्कान लिए वे
जागो माँ, ये पुकार रहे थे ||
तभी मधुर शिशु क्रन्दन ने
कानों में अमृत घोल दिया था ।
श्यामवर्ण मोहक बालक ने
मात पिता को मुग्ध किया था ||
खुलीं सकल बेड़ियाँ पिता की,
सारे प्रहरी सोए पड़े थे ।
रखा सूप में शिशु को, पत्नी
से आज्ञा ले निकल पड़े थे ||
चरण पखारे हरि के यमुना,
शान्त भाव से नीचे आतीं ।
सारी जल की निधियाँ दर्शन
के हित हरि के, दौड़ी आतीं ||
निकट लिटा जसुदा के कान्हा
को, कन्या को गोद उठाया ।
कारागृह में पहुँच योगमाया
ने क्रन्दन तीव्र मचाया ||
जागे प्रहरी सभी, तो देखा,
कोमल शिशु धरती पर पाया ।
तुरत संदेसा सुनकर मामा
निज भवनों से भागा आया ||
रोका बहुत देवकी और वसुदेव
ने, लेकिन कंस न माना ।
दिया धरा पर पटक बालिका
को, एक पल भी शोक न माना ||
“तेरा मोक्ष कराने के हित
जन्म हो चुका है भगवन का” ।
देकर यह संदेश, योगमाया
ने भव सागर गुँजाया ||
कारागृह में जन्म लिया,
वसुदेव देवकी सुत थे कान्हा ।
पर आँचल था भरा यशोदा
का, जिस गोदी खेले कान्हा ||
कालसर्प का योग बड़ा भारी
कुण्डली में पड़ा हुआ था ।
कितने रोगों दुर्घटनाओं
के कष्टों से भरा हुआ था ||
नष्ट किया उन सबही को, और
अमित पराक्रम दिखलाया था ।
माखन की चोरी करके, सबके
ही मन को मोह लिया था ||
कैसे हो सन्तान का पालन,
मात पिता को समझाया था ।
कितनी नैतिक शिक्षाओं को
निज लीला से सिखलाया था ||
राजनीति और कूटनीति का
मर्म, तुम्हीं ने समझाया था ।
साम दाम और दण्ड भेद सब
उचित युद्ध में, सिखलाया था ||
प्रेम और सौहार्द रहे, यह
मर्म तुम्हीं ने समझाया था ।
कर्म करो निर्लिप्त भाव से,
दर्शन यह भी दिखलाया था ||
जो सम्मान प्रकृति को दोगे,
वह भी बिखराएगी ममता ।
इसी हेतु निज अँगुली पर
गोवर्धन को भी उठा लिया था ||
सारी गउएँ कामधेनु हैं,
अमृतपान कराएँगी ही ।
इसीलिए गउओं की रक्षा
का भी प्रण तुमने धारा था ||
सूझ बूझ से कर्म करो, निज
भाग्य विधाता बन जाओगे ।
कितने ही रण छोड़ो, करो
प्रयास, लक्ष्य को पा जाओगे ||
दया प्रेम करुणा के सागर,
तुमको वसुधा शीश नवाती ।
और चरण पखारे सागर,
नदियाँ कण्ठ हार बन जातीं ||
आकाश तुम्हारा नवल क्षेत्र,
द्युलोक तुम्हारा मस्तक है ।
यह धरा सकल है चरण कमल,
नासिका कुमार अश्विनी हैं ||
तुम सभी सूर्य चन्दा तारे
ग्रह नक्षत्रों के स्वामी हो ।
ये सभी तुम्हारी अनगिन देह
यष्टियों के ही रूप तो हैं ||
तुम ब्रह्मरूप में प्रकट हुए,
विस्तार सृष्टि का तुमसे ही ।
तुम सकल कलायुत पूर्ण पुरुष,
है कठिन बहुत तुम सा बनना ||
पर सद्भावों से युत होकर
मानव माधव बन जाता है ।
और अन्त समय में कृष्णरूप
हो, ब्रह्मलीन हो जाता है ||
श्री कृष्ण जन्म महोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं
----- कात्यायनी