ईश्वर का विराट अथवा विश्व स्वरूप
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ।।- 11/5
अर्थात् हे पार्थ! अब तुम मेरे अनेक अलौकिक रूपों को देखो । मैं तुम्हें अनेक प्रकार की आकृतियों वाले रंगो को दिखाता हूँ ।
हम सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन युद्ध से विरत हो रहे थे उस समय उन्हें इस धर्म युद्ध हेतु प्रेरित करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश तो दिया ही था, साथ ही अर्जुन को अपना विराट स्वरूप भी दिखाया था । किन्तु यह एकमात्र अवसर नहीं था जब श्री कृष्ण ने अपने विराट स्वरूप के दर्शन किसी को कराए थे, भगवान समय समय पर अपने विश्व स्वरूप के दर्शन कराते रहते हैं । उदाहरण के लिए मां यशोदा ने जब अपने लाल के माखन चुराने पर उन्हें दण्ड देना चाहा तो उन्होंने कहा कि "मैया मैं नहीं माखन खायो", और जब मैया ने कहा कि ठीक है - मुंह खोलकर दिखाओ - तो उन्होंने उसमें सकल ब्रह्माण्ड के दर्शन करा दिए - अपना विश्व स्वरूप दिखा दिया ।
अक्रूर जी गोकुल पहुँचे थे बलराम और कृष्ण को मथुरा लिवा ले जाने के लिए और कंस से कृष्ण की रक्षा को लेकर चिन्तित थे । यद्यपि उन्होंने भगवान श्री कृष्ण के चमत्कारों - जैसे पूतना वध, यमलार्जुन, शकटासुर इत्यादि की अनेकों कथाएँ सुनी थीं, किन्तु फिर भी वे उन्हें भगवान नहीं मानकर एक बालक ही मानते थे । इसलिए उन्होंने अपनी यादव सेना के साथ मिलकर कृष्ण की सुरक्षा के लिए योजना बनाई और कृष्ण को उसके विषय में बताया । कृष्ण ने उन्हें आश्वस्त करना चाहा कि वे स्वयं अपनी सुरक्षा कर सकते हैं इसलिए अक्रूर जी उसके लिए चिन्तित न हों, किन्तु अक्रूर जी उसे भी उनका बालकपन ही मान रहे थे । वे कृष्ण और बलराम को लेकर चले और उन्हें रथ में ही बैठा छोड़ यमुना में स्नान के लिए उतर गए । अचानक उन्होंने देखा कि यमुना के जल के मध्य में श्री कृष्ण खड़े मुस्कुरा रहे हैं । उन्हें आश्चर्य हुआ और उन्होंने पलट कर रथ की ओर देखा तो कृष्ण रथ में ही बैठे थे । बार बार अक्रूर जी कभी रथ को देखते और कभी यमुना के जल में - उन्हें कृष्ण ही दीख पड़ते । उस समय श्री कृष्ण ने अक्रूर जी को अपना विराट स्वरूप दिखाया । जल से बाहर आकर अक्रूर जी कृष्ण के चरणों में गिर पड़े । उनके नेत्रों से अश्रुओं की अनवरत धार प्रवाहित हो रही थी । उसी स्थिति में उन्होंने श्री कृष्ण से कहा कि अब मुझे कोई चिन्ता नहीं रही - आप तो स्वयं संसार के रक्षक हैं, मैं नश्वर मनुष्य आपकी क्या सुरक्षा कर सकता हूं ।
इसी प्रकार कृष्ण के चचेरे भाई उद्धव कृष्ण के साथ ज्ञान और प्रेम को लेकर वाद विवाद करते थे और उन्हें कहते थे कि तुमने राधा और अन्य ग्वालिनों को अपने प्रेम के जाल में फंसा लिया है । उद्धव के ज्ञान के अहंकार को नष्ट करने के लिए श्री कृष्ण ने उन्हें श्री राधा के नाम एक पत्र देकर गोकुल भेजा । किन्तु वहां राधा सहित समस्त गोपियों ने उन्हें ज्ञान और प्रेम का ऐसा उपदेश दिया कि वे सब कुछ भूल गए । तब श्री कृष्ण ने उन्हें राधा सहित अपने विष्णु रूप के दर्शन कराए थे ।
कालयवन ने एक गुफा में सतयुग से सोए हुए राजा मुचुकुंद को जगा दिया था । जैसे ही राजा की दृष्टि कालयवन पर पड़ी वह जलकर भस्म हो गया । युद्ध नीति के तहत श्री कृष्ण ने ही भागते भागते कालयवन को वहां पहुँचाया था । तब श्री कृष्ण ने मुचुकुंद को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए और उन्हें हिमालय पर तपस्या के लिए भेज दिया ।
शिशुपाल ने जब श्री कृष्ण को भरी सभा में गालियाँ दीं तो 99 गाली हो जाने पर श्री कृष्ण ने शिशुपाल को सावधान किया कि तुम्हारी मां यानी अपनी बुआ को मैं वचन दे चुका हूं कि तुम्हारे सौ अपराध क्षमा करूंगा, इसलिए अब यहीं रुक जाओ । किन्तु शिशुपाल नहीं रुका और जैसे ही उसने सौवीं गाली दी कि श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया । शिशुपाल के शरीर से उसकी आत्मा भगवान विष्णु के पार्षद जय के रूप में निकली जिसे श्री कृष्ण ने अपना विराट स्वरूप दिखाकर कहा कि अब तुम मुक्त हो गए हो और अपने धाम वापस जा सकते हो ।
कौरवों की सभा में श्री कृष्ण पाण्डवों की ओर से शान्ति का प्रस्ताव लेकर गए तो दुर्योधन ने उन्हें बन्दी बना लिया और उन्हें मारने का उपक्रम करने लगा तो भगवान ने अपना विराट स्वरूप दिखाया, जिसे देखकर सारे कौरव कुछ देर के लिए अंधे हो गए और वहां से भाग खड़े हुए, केवल पितामह भीष्म, विदुर और आचार्य द्रोण ही उस विराट स्वरूप के दर्शन कर सके ।
अर्जुन को तो तीन बार विराट स्वरूप के दर्शन श्री कृष्ण ने कराए । अर्जुन तीन ब्राह्मण पुत्रों के प्राणों की रक्षा नहीं कर सकने के कारण अग्नि में भस्म होने जा रहे थे तब श्री कृष्ण उन्हें ब्राह्मण पुत्रों को ढूंढने के लिए एक अंधेरी गुफा में ले गए और वहां अपना विराट स्वरूप दिखाकर अर्जुन के साथ स्वयं भी उस विराट स्वरूप को नमन किया । वहां से वापस लौटते समय अर्जुन ने पुनः वही स्वरूप दिखाने की प्रार्थना की तो श्री कृष्ण ने फिर वही स्वरूप दिखाया । इस प्रकार एक बार नहीं अपितु अनेक बार श्री कृष्ण ने अपने विराट विश्व स्वरूप के दर्शन कराए हैं ।
विश्वरूप अर्थात् विश्व (संसार) और रूप । अपने विश्वरूप में भगवान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन पल भर में करा देते हैं । महाभारत में संजय धृतराष्ट्र के समक्ष भगवान विराट के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार करता है - अनगिनत नेत्रों से युक्त प्रभु नारायण अनेक दर्शनों से सम्पन्न हैं, कई प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र धारण कियें हैं, दिव्य आभूषण तथा अद्भुत सुगन्ध से सुशोभित हैं, अनेक अश्चर्यों से युक्त हैं, असीम हैं तथा किसी एक दिशा में नहीं अपितु सभी दसों दिशाओं की ओर मुख किये हैं । प्रभु के उस विश्वरूप से उत्पन्न प्रकाश की समता सम्भवतः आकाश में अनगिनत सूर्योदय ही कर पाएँ ।
शुक्ल यजुर्वेद का पुरुष सूक्त "ॐ सहस्त्रशीर्ष: पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्" भी भगवान के इसी विश्व स्वरूप की ओर इंगित करता है । वास्तव में तो भगवान के अनन्त, अपार विश्वरूप का एक छोटा-सा अंश होनेके कारण यह संसार भी विश्वरूप ही है । इस विश्व स्वरूप का दर्शन हमें हर समय होता रहता है किन्तु हम उसे समझ नहीं पाते । उसे समझने के लिए आवश्यक है कि हम हर पल जगत के कण कण में - प्रत्येक जीव में - अपनी आत्मा के दर्शन करें - सबको आत्म स्वरूप समझें - पुराणों में भगवान के दिव्य विराट स्वरूप से वास्तव में यही अभिप्राय है ।
-----कात्यायनी