मेघों ने बाँसुरी बजाई,
झूम उठी पुरवाई रे |
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी
दुलहिन बन शरमाई रे ||
उमड़ा स्नेह गगन के मन में,
बादल बन कर बरस गया
प्रेमाकुल धरती ने, नदियों
की बाँहों से परस दिया |
लहरों ने एकतारा छेड़ा,
कोयलिया इतराई रे
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी
दुलहिन बन शरमाई रे ||
बूँदों के दर्पण में कली
कली निज रूप निहार रही
धरती हरा घाघरा पहने
नित नव कर श्रृंगार रही |
सजी लताएँ, हौले हौले
डोल उठी अमराई रे |
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी
दुलहिन बन शरमाई रे ||
अँबुवा की डाली पे, सावन
के झूले मन को भाते
हर इक राधा पेंग बढ़ाए,
और हर कान्हा दे झोंटे |
हर क्षण, प्रतिपल, दसों दिशाएँ
लगती हैं मदिराई रे
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी
दुलहिन बन शरमाई रे ||
----- कात्यायनी